सामाजिक

लेख– शत-फ़ीसद मतदान से ही जनतंत्र मजबूत होगा

  • डॉ दादूराम शर्मा ने गणतंत्र को परिभाषित करते हुए लिखा है- नेता-अफ़सर पाट दो, चक्की है यह तन्त्र। जनगण गेंहू सा पिसे, यहीं आज गणतंत्र। ऐसे में अगर राजनीति जाति, धर्म औऱ स्वार्थ के रथ पर सवार है, तो उसके लिए जिम्मेदार हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनगण भी हैं। जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए तो कभी-कभार आवाज़ भी उठाई, लेकिन संवैधानिक कर्तव्यों से जी चुराते रहें हैं। जिसका परिणाम यह रहा। जिस रामराज्य की परिकल्पना आज़ादी के वक्त व्यक्त की गई थी, वह वास्तविकता के धरातल पर अभी तक नहीं आ सकी। गणतंत्र में जनगण दुखड़े तो रोता है, कि आज की राजनीति परिवारवाद औऱ जातिवाद से जकड़ी हुई है। पर हर वक्त सिर्फ़ औऱ सिर्फ़ रोग का व्यथा रोना ही पर्याप्त नहीं होता, उसका निदान भी ढूढ़ना होता है। तो क्या कभी जनगण ने अपने कर्तव्यों औऱ मिले अधिकारों का सही प्रयोग किया। शायद सौ फ़ीसद उपयोग नहीं किया। तभी तो आज के दौर में लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव औऱ राजनीति के खोखले वादे तक सीमित रह गया है।

चुनाव के माध्यम से रहनुमाई व्यवस्था चुनी जाती है। जिनके द्वारा निर्मित नीतियां सामाजिक उत्थान में सहायक होती है। इसके अलावा जनगण इन निर्णयों और नीतियों से प्रभावित भी होता है। तो ऐसे में आवश्यक हो जाता है, कि हर नागरिक अपने अधिकार का उपयोग करें, वह भी अपनी और समाज की भलाई के लिए जिम्मदारीपूर्वक। भारत में 2014 के आम चुनाव के दरमियान पड़े मत फ़ीसद का आंकलन किया जाए, तो लगभग 33 फ़ीसद से अधिक जनसंख्या अपने अधिकार का प्रयोग करने पोलिंग बूथ तक नहीं गई। कुछ लोग मताधिकार के प्रयोग को समय की बर्बादी समझते है, जो कि बहुत ही निंदनीय बात है। भारतीय जनता पार्टी अनिवार्य मतदान के पक्ष में पहले से खड़ी नज़र आती रहीं है। जिसके फलस्वरूप भाजपा शासित राज्य गुजरात में अनिवार्य मतदान का विधेयक भी पास हुआ, लेकिन हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। अनिवार्य मतदान करवाने के पक्षधरों का मानना है, कि दुनिया के विभिन्न देश में यह रीति है, तो अपने देश मे क्यों नहीं। अर्जेंटीना, पेरू, उरुग्वे, सिंगापुर, नौरू, ब्राजील, कांगो और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में अनिवार्य मतदान पद्धति को अपनाया गया है। यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया में तो मतदान नहीं करने पर दंड का भी प्रावधान है। वैसे जिन देशों में अनिवार्य मतदान पद्वति अपनाई गई है, वे काफ़ी छोटे है। देश में नब्बे करोड़ से अधिक मतदाता है, जिनमें से बड़ी संख्या में लोग रोज़ी-रोटी की कमाई के लिए घर से बाहर रहते हैं, तो अगर अनिवार्य मतदान अनिवार्य हो भी जाए, तो जी का जंजाल ही साबित होगा। ऐसे में अनिवार्य मतदान बनाने के लिए कोई सार्थक पहल पहले करनी होगी।

ऐसे में डिजिटल इंडिया का प्रयोग करना मतदान बढ़ाने की दिशा में सार्थक पहल हो सकती है। वैसे सरकारें डिजिटल इंडिया को बढ़ावा भी दे रहीं है। तो मोबाइल-फोन को चुनावी क्रांति के साथ क्यों नहीं जोड़ा जा रहा। ई-वोटिंग को बढ़ावा रहनुमाई व्यवस्था द्वारा दी जानी चाहिए। जिससे लोग अपने दैनिक क्रियाकलापों को निष्पादित करने के साथ लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी ले सकें। इस प्रणाली का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि एक ओर जहां मतदान फ़ीसद में बढ़ोतरी होगी। जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। वहीं इस प्रक्रिया के चलन में आने से ग़लत तरीक़े से मत के दुरूपयोग की समस्या से व्यवस्था को निज़ात मिलेगी। ई- वोटिंग को बढ़ावा देने का एक फायदा यह भी होगा, कि उक्त दिन पूरे सरकारी औऱ गैरसरकारी संस्थाओं को बंद भी नहीं करना पड़ेगा। ई- वोटिंग प्रणाली के समकक्ष सबसे बड़ी समस्या यह हो सकती है, कि जिनके पास मोबाइल-फ़ोन नहीं, उनका क्या? उन लोगों का चयन व्यवस्था को चुनाव से पूर्व करके उनके लिए मतदाता केंद्र का गठन करना चाहिए। इस प्रक्रिया से चुनाव तंत्र में होने वाले ख़र्च में तो कमी आएगी ही, साथ में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति के साथ राजनीतिक धांधलेबाजी भी कम होगी। जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती। पर गणतंत्र की जनगण ने शायद अपने अधिकारों से समझौता कर लिया है। वह अपने मिले अधिकार का उपयोग भी नहीं कर पा रहीं। तो यह विचार- विमर्श का विषय हो जाता है।

हर साल 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 25 जनवरी, 2011 को की गयी थी। 25 जनवरी को मतदाता दिवस मनाएं जाने का मुख्य कारण निर्वाचन आयोग की स्थापना 25 जनवरी, 1950 को होना है। मतदाता दिवस के अवसर पर मतदाताओं को जागरूक करने के लिए तमाम तरीक़े के अभियान चलाएं जाते हैं। मतदाता दिवस का मुख्य उद्देश्य नये मतदाताओं को पंजीकृत करने के साथ-साथ मतदान की अनिवार्यता के प्रति लोगों को जागरूक करना होता है। आज आज़ादी के सात दशक बाद भी जागरूकता के अभाव में बड़ी आबादी का हिस्सा मतदान में भाग नहीं लेता। जो कि लोकतांत्रिक भावना को क्षीण करती है। लोकतंत्र में बढ़ते भाई-भतीजावाद औऱ जातिवादी वैमनस्य का कारण यह भी है, कि राजनीतिक दल लोगों को भड़काकर और दिग्भ्रमित करके मत की कीमत को कमज़ोर कर देते हैं। इसके अलावा कुछ हिस्सा समाज का ऐसा भी है, जो अपने मत की कीमत लगाने से नहीं कतराता। मतदाताओं को धर्म, जाति, भाषा और नस्ल के नाम पर तोड़ कर कुछ लोग आज़कल सत्ता की सीढ़ी चढ़ रहे हैं। तो कुछ अपने बाहुबल और पैसे की रौब में लोकतांत्रिक व्यवस्था की भावना को ठेस पहुचाते है। जो जनतंत्र में जन की भावना के दामन का सबसे बड़ा कारण है। मतदाता वर्ग काे यह समझना होगा, कि उसके मत से ही देश, राज्य और पंचायत की व्यवस्था चलती है। अगर वे अच्छे नेतृत्व को चुनेंगी, तभी सामाजिक सरोकार से ज़ुड़े मुद्दों पर कार्य होगा। मतदाता लोकतंत्र की रीढ़ होते हैं, यह उन्हें समझना होगा। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं।

बिजली, पानी, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य औऱ सड़कें ये सभी मूलभूत सुविधाएं अवाम को मुहैया हो सकती है, अगर अवाम अपने मताधिकार के अधिकार को समझ जाएं। एक मत की क़ीमत भी लोकतंत्र में होती है, यह देश के जनगण को समझना होगा। भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, जाति, धर्म से परे लोकतांत्रिक परिवेश निर्मित करना है, तो जनता को आगे आकर अपने मत का शत फ़ीसद उपयोग करना होगा। चुनाव प्रक्रिया अब अगर बेईमानी का खेल बन कर रह गई है, औऱ बुद्धिजीवी पढ़े-लिखे लोग राजनीति में पनप नहीं पा रहें। तो उसका एक कारण घटता मताधिकार का प्रयोग भी है। इसलिए मतदाताओं को जागरूक करने के साथ उन्हें सम्मानित करने औऱ लोकतंत्र के प्रति उनके मत की अहमियत बताने से मत फ़ीसद में बढ़ोतरी देखी जा सकती है। जो लोकतंत्र को मजबूत बनाने का काम भी करेंगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896