कविता

विश्व जल दिवस पर एक रचना….

श्रृंगार छ्न्द

अरे….! हो जाये हाहाकार।
न लूटो जीवन का आधार।
प्रथम जल जीवन है तो जीव।
अन्यथा तृण मानव निर्जीव।

न रूठे कहीं किसी इक रोज।
कि गंगू नीर का राजा भोज।
हनन कर, कर बैठें अधिकार।
कहीं कुछ बाहुबली मक्कार।

इसलिए करो नही बर्बाद।
रखो बस इतना तो तुम याद।
पिघलने से पहले ये पीर।
कहीं दुष्कर हो मिलना नीर।

चलाएं चलो एक अभियान।
प्रथम तुम बनो नही अनजान।
समझते हो गर जीवन अर्थ।
करो मत जलधन को यूँ व्यर्थ।

पड़े हैं निर्मम सूखे घाट।
नही अब देखे पनघट वाट।
सिसकती रहती है ये प्यास।
अधूरी रह न जाए आस।

अरे ओ बेसुध मानव जाग।
न कोई आकर बोले काग।
कहीं बढ़ जाए इतनी पीर।
कि पीना पड़े नैन का नीर।

कभी जब उमड़े नभ का नेह।
बरस पड़ते हैं जम के मेह।
बुझे जब प्यास,धरा दे छोड़।
कि “अनहद” बूँद बूँद को जोड़।

______ अनहद गुंजन अग्रवाल 22/03/18

गुंजन अग्रवाल

नाम- गुंजन अग्रवाल साहित्यिक नाम - "अनहद" शिक्षा- बीएससी, एम.ए.(हिंदी) सचिव - महिला काव्य मंच फरीदाबाद इकाई संपादक - 'कालसाक्षी ' वेबपत्र पोर्टल विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ------ विस्तृत हूँ मैं नभ के जैसी, नभ को छूना पर बाकी है। काव्यसाधना की मैं प्यासी, काव्य कलम मेरी साकी है। मैं उड़ेल दूँ भाव सभी अरु, काव्य पियाला छलका जाऊँ। पीते पीते होश न खोना, सत्य अगर मैं दिखला पाऊँ। छ्न्द बहर अरकान सभी ये, रखती हूँ अपने तरकश में। किन्तु नही मैं रह पाती हूँ, सृजन करे कुछ अपने वश में। शब्द साधना कर लेखन में, बात हृदय की कह जाती हूँ। काव्य सहोदर काव्य मित्र है, अतः कवित्त दोहराती हूँ। ...... *अनहद गुंजन*