कविता

काल

मैं  कैसे हंसू और मुस्कराऊ,
मुझे काल का, भय दिख रहा है

कई काल के गर्त में जा चुके हैं,
कईयों के जाने का समय दिख रहा है,
मुझे काल का, भय दिख रहा है

दूर जो देखती हूँ,जीवन और मृत्यु की तरह,
जमीं  आसमाँ  का विलय दिख रहा है,
मुझे काल का, भय दिख रहा है

उम्र के बढ़ने के साथ साथ,
नयी नयी बीमारियों का उदय दिख रहा है,
मुझे काल का, भय दिख रहा है

मैं चाहती हूँ इस भय सागर से उबरना,
मुझे संभाल  ले ओ प्रभु,
एक तू ही शक्तिवान और निर्भय दिख रहा है

सुनीता कत्याल 

सुनीता कत्याल

पति का नाम -जीतेन्द्र कुमार कत्याल जन्म तिथि- 9 -8 -1959 मैं लखनऊ निवासी हूँ | साइंस और एजुकेशन में ग्रेजुएशन किया है.| बचपन से ही कविता लिखने, पढ़ने और कहानी पढ़ने का शौक था.| पर अब 33 - 34 वर्षो बाद फिर से कविता लेखन को अपनाया | मेरी कवितायें जीवन के उतार और चढाव तथा सामयिक परिस्थितियों से प्रभावित मेरी संवेदनाएं है| मेरा अनुभव ये कहता है कि उम्र के साथ साथ व्यक्ति की अभिव्यक्ति और भी निखर जाती है | मेरी एक कविता "स्याही" अमर उजाला काव्य में प्रकाशित हुई है.