कवितापद्य साहित्य

मछैंद

प्यादा कहने आया साहेब …

ओह..

बंद कमरे में भीनी सी महक

अंदर घुसने पर..

एक बार नाक चढाई मगर..

फिर मुस्कुराहट खिली

आज नई मछली थी

तो ..

मछैंद तो आनी ही थी

लेकिन.. कुछ ही देर में ……….

उनका पसीना

बन जाता है इत्र

मोटे होठ कमसिन पंखुड़िया लगती है

इंद्रलोक से उतरी परी

खूबसूरत मदहोश करती हुई

किसे मालूम करना कौन हैं वो ?

वो गर्म गोश्त हैं

जिनको छूने को

लालायित हाथ

बिना नफरत के ..

जैसे जीवन नदिया मिली हो

तैरने को आतुर ..

ये वही कलमुहे हैं….

जो कल सडक किनारे

झुग्गी में बांटने गये थे

सरकारी सहायता …

एक NGO के नाम पर

आज रात रंगीन

और

कल सुबह संगीन

आदेश आया है

झुग्गी हटाने का

और इनके पास ठेका है …

झुग्गी को बचाने का

नारे लगवाने का

सरकार की बदनामी का

गरीब की लाचारी का

ये मछलियाँ ..

फंसती रहेंगी यूँही..

एक के बाद एक

रोज नित्य प्रति हर रंग औ सुरत में …

इन्हें बचाने कोई नहीं आएगा

ये जाल मजबूत धागों से बुना हैं ..

मछलियों तुमसे न टूट पायेगा

—- विजयलक्ष्मी

विजय लक्ष्मी

विजयलक्ष्मी , हरिद्वार से , माँ गंगा के पावन तट पर रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हमे . कलम सबसे अच्छी दोस्त है , .