सामाजिक

आहार विचार

आज अपेक्षा है कि मनुष्य सात्विक आहार कर अपने तन मन को स्वस्थ रखें ।अपने लिये उचित व आवश्यक आहार का चयन करें और उत्तम भाव व विचार ग्रहण करते हुए अपना आत्म स्वरूप समझ ईश्वरत्व का वरण करे !
राजसी भोजन आलस्य व तन्द्रा उत्पन्न कर मन को अस्थिर करता है । तामसी भोजन शरीर, मन व आत्मा के लिये उपयुक्त नहीं है और वह न कर हम अपना स्वास्थ्य, मन व भाव अच्छा, चैतन्य व तरंगित रख सकते हैं ।
कोई माँसाहार करने वाले कह देते हैं कि मनुज माँस न खाये तो इतने जीव पृथ्वी पर कैसे समा पाएँगे ! जीवों की जीवन स्थिति व संख्या का संचालन व संतुलन प्रकृति भली प्रकार करती रहती है !
जहाँ हम और आप रहते हैं, हमारी तरह सब जीव भी परम पुरुष की गोद से यहाँ आए हैं, उनकी सृष्टि में रह रहे हैं व परस्पर सामंजस्य बना कर अनन्त काल तक रहते रहेंगे ! हमारे व उनके परम-पिता एक वे ही हैं । हो सकता है उन्हें व वनस्पतियों को नष्ट कर या अतिशय उपयोग कर या खा कर मनुज अपना स्वास्थ्य व मन असंतुलित कर ले और स्वयं को ही विनष्टि की ओर धकेल दे !
आदमी ही अपने खाने के लिये जीव जन्तुओं को फ़सल की तरह कृत्रिम तरीक़ों से उगा बढ़ा रहा है और उन्हें खा खा कर स्वयं बीमार हो कर समय से पूर्व मृत्यु का वरण कर रहा है । वह जी भी रहा है तो तन मन में अस्थिर, चिंतित व बेजान सा है और चैतन्यता व खुले मन से कुछ नहीं कर पा रहा । लगता है कि वह अपना जगत में आने का प्रयोजन भूल गया है !
भोज्य पदार्थों व औषधियों का उत्पादन आज व्यापार बन गया है और प्रचार प्रसार द्वारा अधिक से अधिक धन कमाना बहुत लोगों का उद्देश्य बन गया है । मानव के स्वास्थ्य की उन्हें परवाह नहीं है, अपनी जेब भरना उनका प्रयोजन रहता है ।
मानव मात्र खाने के लिये नहीं आया वरन कुछ उपयोगी कर्म कर आनन्द लेने व देने आया है ! हमारी अधिकाँश क्षमता अज्ञात व अछूती रह जाती है और हम वार २ कम उन्नत जीवों या विकासशील मनुष्यों की भाँति सृष्टि में आवागमन करते रहते हैं ! जागतिक गति में थम कर मानसिक व आध्यात्मिक सुगति में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है !
इस अचेतनावस्था में मनुज को कुछ उनसे भी अपेक्षाकृत अधिक स्वार्थी व दुराचारी तेज़ तर्रार पथभ्रमित मनुष्य जो जड़, मानसिक या आध्यात्मिक रूप में भी उनसे अधिक उन्नत हो सकते हैं, उनका शिकार कर उनका सारा जीवन वर्वाद कर देते हैं या उनको वैसी ही मृत्यु देते हैं जैसी उन्होंने अनजाने जाने अन्य जीवों को दी हुई होती है !
सृष्टि में हमारे हर कर्म व भाव की क्रिया की प्रतिक्रिया होनी सुनिश्चित है ! यह आपके ऊपर है कि आप क्या करें व क्या भोगें ! कोई और आपको कुछ नहीं कर रहा बस आप ही स्वयं अपना भूत वर्तमान व भविष्य हैं !
जो अच्छा बुरा उर में लगे करते जाइए और उसका परिणाम आगे पीछे देखते जाइए ! आप स्वरूपत: ईश हैं पर यदि वह नहीं रहना या होना चाहते तो शायद उनका एक एक धूल कण भी सहज भाव से चलते हुए मानव से अधिक योग्य हो सकता है !
स्वयं के अहं को भी खा के देखिए, अपने आत्म को भी हो सके तो उत्सर्ग करके देखिए और तब देखिए कितनी पीड़ा में हर मरते विलखते जीव की स्वायत्त आत्म रहती है या रही होगी !
अपना जीवन यापन करने के लिये हमें सृष्टि में देश काल की स्थिति या परिस्थिति में वह भोजन करना चाहिए जिससे कि प्रकृति का कम से कम नुक़सान हो । जिन वनस्पतियों की देह की रासायनिक संरचना जितनी ज़्यादा सरल है वे उतने ही ज़्यादा सुपाच्य व चेतना देने वाली हैं ।
जन्तु की देह व मन अपेक्षाकृत अधिक उत्तिष्ठ व क्लिष्ट संरचना है और न तो वह आसानी से पच पाती है और मानव देह में ना ही उत्कृष्ट रस सृवित कर पाती है । वह मानव शरीर व मन में जड़ता व तामसिकता का संचार करता है ।
हम मानव तभी हैं जब विवेकी व आत्मानुरागी हैं और जीवन की अनुभूतियों से कुछ सीख कर हर प्राण के प्रति परस्पर समर्पण व सेवा करना सीखे हैं वरन हम उन जीवों से भी बहुत बदतर हैं जो सहज रूप से विचर रहे हैं और हम उनको आहार बना स्वयं को भी व्यथित आहत व मृतमना कर रहे हैं !
अत: अपने ईश्वरीय स्वरूप का ध्यान रख उसी का ध्यान कर उतना व वही आहार व्यवहार विचार करें जो आपकी आत्मा की सृष्टि में बसे विहरे व विचरे हर अणु व ब्रह्माण्ड को आनन्दित, आल्ह्वादित व तरंगित करे !

गोपाल बघेल ‘मधु’