कविता

रानी – एक बालिका वधू

एक मासूम सी कली थी रानी
निष्पाप, कोमल था उसका मन।
अंजान दुनिया की उलझनों से
निश्छल, निष्कपट दो प्यारे नैन।।

केवल समझे वह स्नेह की भाषा
और मां का प्यार भरा दुलार।
पिता के स्नेह की प्यासी थी वह
करते थे पिता बेटी से बहुत प्यार।।

समझे ना वो जग की जटिलता
केवल समझे प्यार की भाषा।
भूख लगे तो भोजन चाहिए उसे
स्वादिष्ट भोजन की थी अभिलाषा।।

दरिद्र माता पिता की बेटी थी रानी
मन में थे उसके सपने अनेक।
कैसे साकार होंगे सपने सारे
इसका ज्ञान न था, ना था विवेक।।

थोड़ी सयानी हुई रानी जब
स्कूल जाने की थी उसकी कामना।
दो वक्त की रोटी मिलना कठिन
संभव ना था उसे लिखाना पढ़ाना।।

दस वर्ष की रानी का विवाह
तय हुआ तीस वर्ष के युवक से।
झूम झूम कर नाच रही थी रानी
प्रसन्न थी बहुत शादी की बात से।।

समझे ना विवाह का अर्थ वह
मिलेंगे पहनने को अच्छे परिधान।
सज धज कर, दुल्हन उसे है बनना
और मिल जाएगा स्वादिष्ट व्यंजन।।

कभी नहीं चखी वह जीवन में
कैसे होते हैं अच्छे-अच्छे पकवान।
बहुत आनंद मिलेगा ससुराल में
साकार होंगे मन के सारे स्वपन।।

ससुराल चली जाती है रानी
अपने पति का हाथ पकड़ कर।
पीछे बुरा हाल होता है मां का
रानी के बिना सूने घर में रोकर।।

सास- ससुर की भौंहे चढ़ गई
देख, मिला नहीं कोई भी दहेज।
तीखी बातों की होने लगी बौछार
शब्दों के, बिना कोई किए परहेज।।

रानी को कुछ समझ ना आया
क्यों थे सभी इतने क्रोधित।
क्या ससुराल ऐसा ही होता है?
जहां कोई भी नहीं है उसका मीत।।

मासूम को यह सब पता ना था
दुनिया में होती है इतनी उलझन।
डर से मूर्तिवत खड़ी रह गई वह
कांप रहा था उसका पूरा तन।।

रात भर जो हुआ मासूम के साथ
शब्दों में ढालना है बहुत कठिन।
भोर होते ही फिर काम में लग गई
पता ना चला कैसे बीता सारा दिन।।

दिन भर काम करने के पश्चात
मिलता ना था उसे भरपेट भोजन।
बात बात में डांट – डपट मार-पीट
ईश्वर किसी को ना दें ऐसा जीवन।।

इतनी यातना सह ना सकी मासूम
मां बापू की बहुत उसे याद आई।
डर- डर कर अपने पति से वह
मायके जाने की इच्छा जताई।।

आंखें तरेर कर कहा पति ने
जाओ, पर लौटकर मत आना।
और अगर लौटना ही है तो फिर
साथ में बहुत दहेज लेकर आना।।

निर्धन माता पिता दहेज कैसे देंगे
सोच कर वह मन मार कर रह गई।
दो नैनों में भरकर अश्रु – धार
पुनः काम में वह व्यस्त हो गई।।

भोजन पकाने गई रसोई में वह
मन में लिए दुख का अनंत सागर।
रो रो कर हुआ था बुरा हाल उसका
व्यथा से भर उठी उसकी मन-गागर।।

भोजन बना रही थी चूल्हे में वह
लेकर मन में अनेक उलझन।
आग लगी कब साड़ी के पल्लू में
हुआ न उसको इस बात का भान।।

पूरी तरह जल चुकी थी मासूम
शरीर हो गया था उसी क्षण शांत।
फैल गया समाचार चारो दिशा में
आग लगाकर जीवन का किया अंत।।

साकार ना हुए उसके सपने
जलकर हो गए थे सब राख।
क्यों लिखा विधाता ने इतना
निर्मम होकर उसका भाग???

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com