इतिहास

पत्रकार से प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री व भारत रत्न अटल बिहारी बाजपेई संघ के प्रचारक और पत्रकार के बाद सांसद और देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन उन्होंने आजीवन राष्ट्रधर्म का पालन किया। राजनीति उनके लिए साधन नहीं साध्य थी। वे राजनीति में अध्यात्म का समावेश चाहते थे। अटल बिहारी बाजपेई का मानना था कि सत्ता ऐसी होनी चाहिए जो हमारे जीवन मूल्यों के साथ बंधी हो। जो हमारी जीवन पद्धति के विकास में योगदान दे सके। ऐन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति के मार्ग के वे प्रखर विरोधी थे। राजनीति में खरीद फरोख्त के खिलाफ थे। अटल बिहारी बाजपेई ने केवल एक वोट कम होने के कारण प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इस घटना के बाद एक समाचार पत्र के संपादक ने उनसे कहा कि आप प्रधानमंत्री होते हुए भी एक वोट का प्रबंध नहीं कर पाये। अटल ने हंसते हुए कहा कि मण्डी लगी थी। मण्डी में माल भी था। माल बिकाऊ भी था। किन्तु कोई खरीददार नहीं था। बाजपेई ने कहा कि लोकतंत्र को बचाने के लिए यदि हमारी सरकार एक वोट से गिर भी जाती है तो वह हमें मंजूर है लेकिन वोट खरीदकर मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बना रहूं यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है। सत्ता के लिए कुछ भी करने को वह तैयार नहीं हुए। बाजपेई को जनता पर विश्वास था कि हम फिर जीतकर आयेंगे और भारी बहुमत के साथ आयेंगे। वही हुआ। अटल फिर से प्रधानमंत्री बने। उन्होंने पहली बार गठबंधन सरकार 23 अलग- अलग राजनीतिक दलों के साथ बिना किसी रूकावट के कार्यकाल पूरा किया। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से पूरे देश के गांवों को जोड़ने का काम किया। विदेशियों से संबंध अच्छा चाहते थे। इसलिए उन्होंने लाहौर बस सेवा की शुरूआत की थी। पाक ने हरकत की। इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा। कारगिल के युद्ध में मिली ऐतिहासिक जीत का श्रेय भी उन्हें ही जाता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस ने उन्हें 1946 में कानपुर से बुलाकर राष्ट्रधर्म का काम देखने को कहा। वे वहां से आये और राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादन का काम देखने लगे। 31 दिसम्बर 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक आया। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक का साहित्य जगत में स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म ने शीघ्र ही एक अच्छे मासिक पत्रिका के रूप में अपनी पहचान बना ली। उनकी सम्पादन कुशलता और पत्र की सफलता को देखकर साप्ताहिक समाचार पत्र शुरू करने की योजना बनी और ‘पांचजन्य’ का प्रकाशन करने का फैसला लिया गया।

शुरू में राष्ट्रधर्म की 500 प्रतियां छपती थी। तीसरा अंक आते- आते 12 हजार प्रति हो गयी। लखनऊ में वे राष्ट्रधर्म, के प्रथम संपादक नियुक्त किए गए थे। उनके परिश्रम और कुशल संपादन से राष्ट्रधर्म ने कुछ ही समय में अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया। लखनऊ के साहित्यकारों में अपनी पहचान बनाने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। उन्होंने राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन किया। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक के मुखपृष्ठ पर ‘‘ हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन रग रग हिन्दू मेरा परिचय कविता खूब चर्चित हुई।

लखनऊ से 1991, 1996,1998,1999 व 2004 में लगातार पांच बार लोकसभा चुनाव जीते। जिस दिन अखबार फाइनल होता था उस दिन सुबह 09 बजे से रात नौ बजे तक अनवरत अटल जी काम करते थे। अटल जी घटनाओं की स्वयं कवरेज करते थे। स्वयं संपादन का काम भी खुद करते थे। अखबार छपने के बाद अखबारों का बंडल साईकिल पर लादकर चारबाग रेलवे स्टेशन पर बेंचने भी खुद जाते थे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। उस समय राष्ट्रधर्म और पांचजन्य दोनों पत्रों को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ता था।

अटल जी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। जेनेवा में मानवाधिकार हनन को लेकर सम्मेलन में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के विरूद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित कराने में जुटी थी। भारतीय प्रतिनिधिमण्डल को किसके नेतृत्व में वहां भेजा जाए जो भुट्टो को मात दे सके। ऐसे में लोगों ने अटल का नाम सुझाया। अटल कलकत्ता में थे। प्रधानमंत्री का दूत गया। अटल तुरन्त दिल्ली आये। संसदीय दल के सदस्यों को बुलाकर उनसे राय मांगी। सदस्यों ने कहा कि जीत गये तो श्रेय सरकार को हार गये तो ठीकरा अटल के सिर। अटल जी बोले नहीं मैं जाउंगा। यह राष्ट्र के स्वाभिमान का मामला है। उसी रात वे जेनेवा के लिए रवाना हो गये। वहां पर चीन,ईरान,सऊदी अरब और अमेरिका गुट को उनके मानवाधिकार हनन के काले कारनामों का चिट्ठा दिखाकर चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान का समर्थन करने का दुस्साहस हुआ तो तुम्हें आइना दिखाते हमें देर नहीं लगेगी। दांव ऐसा सटीक पड़ा कि पाकिस्तान की हार हुई। बाजपेई विजय दुन्दुभी बजाते भारत आये।

अटल के राजनीतिक जीवन पर नजर डालें तो कई ऐसे अवसर आये जिस समय वह विचलित नहीं हुए। पण्डित श्यामा प्रसाद मुखर्जी का निधन रहा हो या पण्डित दीन दयाल उपाध्याय का असमय जाना रहा हो या फिर जनता पार्टी का विघटन रहा हो। अटल ने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाये रखने में कामयाब रहे और पार्टी को ऊंचाई पर ले जाने के लिए प्राण पण से लगे रहे। यह सर्वविदित है कि नरसिम्हा राव के कार्यकाल में पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण होना था। सब कुछ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चल रहा था। किन्तु वे परीक्षण नहीं करा सके। अमेरिका ने अपने प्रभाव से रूकवा दिया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद डा. अब्दुल कलाम उनके मिलने गये और परमाणु परीक्षण की अनुमति मांगी। अटल ने कहा ठीक है तैयारी करो। ऐसी सहर्ष अनुमति से अब्दुल कलाम की आंखों से आंसू आ गये। तैयारी शुरू हो गयी। जिस दिन परीक्षण होना था उस दिन बाजपेई ने विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को और राज्यसभा में नेता मनमोहन सिंह को चाय पर बुला लिया। सफल परीक्षण की सबसे पहले सूचना प्रधानमंत्री को दी गयी प्रधानमंत्री ने सबसे पहले मुख्य विपक्षी पार्टी को सूचना दी। पूरा विश्व आश्चर्य चकित। अमेरिका ने प्रतिबंध की धमकी दी। अटल ने कहा कि आपको जो करना है करने के लिए स्वतंत्र हैं। वह राजनीति में शुचिता के भी पर्याय थे। उनकी वक्तृत्व कला का तो पूरा विश्व लोहा मानता था। बाबू जगजीवन राम जब रेलमंत्री थी उस समय एक रेल दुर्घटना हो गयी थी। सदन में चुटकी लेते हुए अटल जी ने कहा कि ‘‘ लोग अब न जग न जीवन ’’ बस राम के सहारे रेल यात्रा करते हैं। इस चुटकी पर जगजीवन राम भी मुस्कुराये। 2004 के चुनाव से पहले अटल बिहारी बजपाई अयोध्या में सरयू के रेल पुल का लोकार्पण करने गये थे। रेल पुल का उद्घाटन करने के बाद वह रेल से ही फैजाबाद गये। हलांकि अयोध्या नगर में न जाने पर संतों ने उनका विरोध किया। इसके बाद फैजाबाद हवाई पट्टी पर विशाल जनसभा का आयोजन किया गया था। सभा में पहुंचते ही अटल जी ने कहा कि सोनिया गांधी ने कहा कि अटल अपनी बात पर अटल नहीं रहते। हमने कहा कि मैडम सोनिया हम अटल के साथ-साथ बिहारी भी हैं। पूरा मैदान ठहाकों से गूंज उठा। लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में अटल जी की सभा थी। पार्क खचाखच भरा था। चारों तरफ छतों पर बच्चे और महिलाएं थीं। अटल जी कुछ देर से पहुंचे। तुरन्त माइक पकड़ा और चालू हो गये। बोलना शुरू किया। कहा जिस प्रदेश में चन्द्र और भानु दोनों गुप्त हों वहां भला – इतना कहते ही ठहाके छूट पड़े। उस समय चन्द्रभानु गुप्त मुख्यमंत्री थे।लखनऊ में बेगम हजरत महल पार्क में आयोजित सभा में बोलने खड़े हुए उसी समय एक गधे की जोर-जोर से रेकने की आवाज सुनाई दी। अटल जी ने कहा कि शंखध्वनि हो गयी है। जीत हमारी ही होगी।

एक बार लोकसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आवेश में आकर बोली कि एक पार्टी के एक ऐसे नेता हैं जो बांह उठाकर भाषण देते हैं। वे आगे कुछ बोल पातीं कि अटल जी ने कहा कि मैडम दुनिया में ऐसा नेता भी आपने देखा है जो टांग उठाकर भाषण देता हो। बस सदन ठहाकों से गूंज उठा। इंदिरा जी झेंप गयी।

वह दर्जनभर भाषाओं के भी ज्ञाता थे। वह दलगत राजनीति से ऊपर थे। यही कारण था कि विरोधी भी उनके कायल थे। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके जीवन का हर पल हमें प्रेरणा देता रहेगा।

बृज नन्दन यादव

संवाददाता, हिंदुस्थान समाचार