लघुकथा

धर्मधारा (लघुकथा )

धर्मधारा
टन -टन -टन बाइस्कोप वाला आया तमाशा देखो आओ बच्चो कठपुतली का खेल देखो की आवाज सुनते ही मोहल्ले के बच्चे इकट्ठा हो जाते |धर्मेश और धारा बच्चों को खेल तमाशा दिखा कर मनोरंजन करते | इसके द्वारा दोनों की कुछ आमदनी हो जाती , साथ ही बच्चों का सानिध्य भी प्राप्त हो जाता था , दोनों को बच्चों से विशेष लगाव जो था |
कुछ दिन बाद धधर्मेश और धारा के जीवन मे भी एक नन्ही कली खिली धारा ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया |दोनों का जीवन खुशियों से भर गया था | अपने छोटे से परिवार में दोनों बहुत खुश थे |
ओ धारा ! अब तू तमाशा दिखाने साथ नाही चलेगी समझी – – – –
हाँ ! भई हाँ ! अब ई जिम्मेदारी तुम्हारी है हम तो अपनी चंदनिया को संभालेंगे “|
“तू तो बहुतै समझदार है “ह ह हाआआ और हँस पड़ती है |

सहसा धारा को दिल का दौरा पड़ता है और उसकी मृत्यु हो जाती है धर्मेश बच्ची को को गोद मे उठाता हैऔर जोर – जोर से चिल्लाने लगता है !
“अभी तो तोहार चंदनिया पांच माह भी पूरा न कि और तू ओहे छोड़ चली “|
धर्मेश की सारी खुशियाँ बिखर गई थी |
वह टूट गया था | पर हाआआ नहीं |
अपनी बच्ची को कलेजे से लगाये वह दिन रात मेहनत करता | माँ बाप दोनों की ममता लुटाता |
उसका मुख देख के जीता धीरे धीरे समय बीतता गया आज धारा की चंदनिया पूरे पाँच वर्ष की हो गई थी |
ओ बिटिया ! आ जल्दी बैठ तोरी चुटिया बता दूं तोरी मैया ऊपर से देखेगी तो का सोंचेगी तोरा बापू को बाल बांधना नाही आता |
चंदनिया आके धम्म से धर्मेश की गोदी में बैठ जाती है |तभी गांव के प्राथमिक स्कूल का चपरासी स्कूल में कठपुतली का तमाशा दिखाने के लिए उसे बुलाने आता है |,चंदनिया भी उसके साथ जाती है |
बापू ! इतने सारे बच्चे ssss हम भी खेलेंगे बापू ! हाँ हाँ ठीक है वहाँ की शिक्षिका ने उसका हाथ पकड़ते हुए
कहा |
तमाशा खतम होने पर शिक्षिका जी ने सभी बच्चों को कुर्सी दौड़ कराई दौड़ते वक्त सभी बच्चे बोल रहे थे खूब पढ़ेंगे – बड़े बनेंगे |
वापस आते वक्त शिक्षिका जी ने चाँदनिया को एक कॉपी और पेंसिल दी और कहा बोलो खूब पढ़ेंगे – बड़े बनेंगे | चंदनिया को मानो जीवन का मूल मंत्र मिल गया था |
घर पहुंच कर- – — बापू | सुनो ना का है रे – बोल तो तेरी नाही सुनेंगे तो किसकी सुनेंगे || हमें भी स्कूल जाना है – खूब पढ़ेंगे – बड़े बनेंगे |
अच्छा अबही तू सो जा और कुछ धीरे – धीरे गुनगुनाता है |बिटिया सो चुकी थी पर उसकी बात और अपनी गरीबी उसे तार तार कर रही थी न जाने सोंचते सोंचते कब उसकी भी आँख लग गयी |
सुबह दैनिक काम से निवर्त्त होकर जब अपना बाइस्कोप का डिब्बा उठा रहा था तभी उसके कानों में फिर वही स्वर गूँज सुनाई देती है , खूब पढ़ेंगे बड़े बनेंगे | धर्मेश पलटता है चंदनिया अपने नन्हे हाथ में टीचर जी की दी हुई कॉपी पकड़े खड़ी थी धर्मेश मन्त्र मुग्ध हो उसे निहारता रह गया | उसकी आँखों से अपरिमित ममता का सागर हिलोरे मार रहा था |उसने उसी क्षण मन में संकल्प किया कि आज से हम और मेहनत करेंगे और अपने कलेजे के टुकड़े को खूब पढ़ाएंगे |
ए बापू ! चलते काहे नहीं हो ? हाँ बिटिया चल आज से धर्मेश और धारा की इस चंदनिया का नाम धर्मधारा है – ओ बिटिया !! फिर से तो बोल खूब पढ़ेंगे बड़े बनेंगे
खूब पढ़ेंगे बड़े बनेंगे | सच मे तू एक दिन बहुत बड़ी बनेगी और ज्ञान की धारा बहायेगी |
धर्मधारा का हाथ थाम कर धर्मेश स्कूल की ओर चल पड़ता है |
©मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016