हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – पुण्य कमाने का सुख

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को मानव जीवन के चार लक्ष्य माना गया है। मोक्ष प्राप्ति की कामना एक भारतीय के मन में तब जागती है जब वह सत्तर पार कर लेता है और औलादें उसका ध्यान नहीं रखतीं। वरना बाबाजी को फैशन चैनल से ‘काम-सुख’और दादी जी को आस्था चैनल से ‘वैराग्य-सुख’ की जीवनोपयोगी ऊर्जा प्राप्त होती रहती हैं। हमारे देश में अधिक धार्मिक व्यक्ति को भक्त कहा जाता है। भक्त नाम के ये जीव बड़े खतरनाक और लड़ाकू प्रवृत्ति के होते हैं। इसलिए मैं भक्तों से डरता हूँ। एक सच्चे भक्त में दंगा करवाने की पूरी-पूरी क्षमता होती है। भक्त ईश्वर की पूजा-आराधना ध्रुव, प्रहलाद, गौतम, महावीर , सूर, मीरा, कबीर और तुलसी बनने के लिए नहीं करता। मुकेश अंबानी, टाटा-बिड़ला बनने के लिए करता है। अर्थ के लिए करता है। क्योंकि वह जानता हैं कि इस ज़माने में सबसे बड़ा रुपय्या यानि अर्थ है। पैसा अंटी में तो संसार बंटी में- टका धर्म: टका कर्म: टका हि परमो तप:।
यस्स हस्ते टका नास्ति, हा टके टके टकायते।। इसलिए उसका लक्ष्य मोक्ष नहीं, अर्थ होता है। अर्थ व्हाया मोक्ष।
भक्त अर्थ प्राप्त करने के लिए पुण्य की फसल उगाता है। पुण्य पाने के कई मार्ग हैं। वह हिंसा से बचता है। प्राणियों पर उपकार करता है-चीटियों शक्कर देता है, मछलियों को दाना, गाय को रोटी। मुर्गा, बकरे, कहीं-कहीं मछली और अंडे का आहार, हिंसा में नहीं आता इसलिए इनका भक्षण एक अति सात्विक और अति धार्मिक कृत्य मानकर करता है। अतः वह इससे परहेज नही करता। माँ-बाप की सुख-सुविधा और सेवा से भक्त को पुण्य नहीं मिलता, अतः वह, पुण्य प्राप्ति के लिए धार्मिक अनुष्ठानों में बड़ी मात्रा में धन दान करता है। घर में एक गिलास पानी अपने हाथों से न निकालकर पीनेवाले भक्तों को भंडारों के आयोजन में भोजन परोसकर पुण्य का खजाना भरते देखा जा सकता है।
भक्त,पुण्य अर्जित करने के लिए लक्ष्मी-दुर्गा और सरस्वती की आराधना करता है। लेकिन अपने घर में इनके अवतरण पर दुखी हो जाता है। अपने घर की ‘लक्ष्मी’ को ‘सरस्वती’ बनाने में प्रायः भक्तों की रुचि कम होती है, क्योंकि भविष्य में वह लक्ष्मी उसके किसी काम नहीं रहेगी। लक्ष्मी का आता हुआ रूप ही भक्तों पसंद है। जाती हुई लक्ष्मी उसे फूटी आँख नहीं भाती। दुर्गा के रूप में भक्तो को नारी तभी भाती है, जब वह बाहर के महिषासुरों का मर्दन करती है। घरेलु शुंभ-निशुंभ और रक्तबीजों का संहार उसे पसंद नहीं।
भक्त, प्राय: अंधविश्वासी होता है। वह ईश्वर पर कम विश्वास करता है। आसुरी और शैतानी ताकतों पर उसका यकीन ज्यादा होता है। अशुभ कर्म करके शुभ फलों की प्राप्ति के प्रति उसकी गहन आस्था होती है। भक्त, रिश्वत ले-दे कर पाप करता है। पर पाप में बराबरी का भागीदार परमात्मा को उसका हिस्सा देकर बना लेता है। नमकहराम भक्त को भगवान की नमकहलाली पर पूरा भरोसा होता है। पापियों को शापमुक्त करने के लिए युगों पूर्व भागीरथ दादा ने गंगा जी की व्यवस्था धरती पर कर दी थी। भक्त उसका पूरा लाभ समय-समय पर डुबकी मारकर लेता है। माँ-बाप को जीते-जी पानी न पिलानेवाला भक्त भी गंगा जी का जल उनकी अतृप्त हड्डियों को पिलाकर पुण्य कमाना लेना चाहता है-‘जीयत बाप के दंगमदंगा, मरे हाड़ पहुँचाये गंगा।’
हमारे देश में अनेक धर्म हैं और अनेक भक्त। अच्छी बात है। आज देश को अंधभक्तों की नहीं देशभक्तों की आवश्यकता है। देशभक्तों ने समय-समय पर गर्दनें भेंट कर इस देश की सुंदरता की रक्षा उस समय की थी जब देश गुलाम था और किसी पुण्य की कामना भी नहीं की थी। भक्तों, अंधभक्ती छोड़कर देशभक्त बन जाओ और सोचो-
कर गये थे सिर कटाकर वे वतन का हक अदा
अपनों के हाथों तड़पता आज हिन्दुस्तान है।”

शरद सुनेरी