ग़ज़ल
सिर्फ मौसम पे मौसम बदलता रहा,
आदमी, आदमी को ही छलता रहा।
रोज़ बंटता रहा धर्म के नाम पर,
चाँद साँचे में इन्सां के ढलता रहा।
वेष बदले मगर कर्म खोटे किए,
यूँ जनाज़ा वफ़ा का निकलता रहा।
अब सियासत में सत को जगह ही नहीं,
आम इंसान रोता सिसकता रहा।
खार जीभों में उगने लगे हैं ‘शुभम’,
ज़हर – से बोल का दौर खलता रहा।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’