गज़ल
में खोई ख्वाब में अक्सर नई दुनिया बनाती हूँ |
जहाँ इन्सानियत पलती वहीं रिश्ता बनाती हूँ |
जहाँ नफ़रत जहाँ रंजिश दिखी तकरार की रेखा –
मिटा कर उन लकीरों को नयी रेखा बनाती हूँ |
मुकम्मल ख्वाब होगा है यकीं दिल को हमारे भी –
वही तदबीर करती हूँ वही रस्ता बनाती हूँ |
कोई मंदिर कोई मस्जिद कोई गिरजा नहीं टूटे –
चढा कर प्रेम का बख्तर उसे पक्का बनाती हूँ |
इसी माटी में जन्मी हूँ इसी में जा मिलूँगी मैं –
इसी के ही लिये जीती नया चेहरा बनाती हूँ |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’