गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

रोज़ मेरे सपनों में आया करता है,
नींदों में वो घर बनाया करता है।

ये कैसी फितरत है उसकी पूछो ना,
हंसते- हंसते मुझे रुलाया करता है।

इन वीरान, अंधेरी काली रातों में,
आस का दीपक रोज़ जलाया करता है।

वो बेटा दुनिया में नसीबों वाला जो,
अपनी मां के चरण दबाया करता है।

तन्हाई में याद बडा ही आ आकर,
रात-रातभर मुझे जगाया करता है।

चांदनी रातों में छिप-छिपकर तारों से,
छत पे अपनी चांद बुलाया करता है।

हमने ‘जय’ को अक्सर देखा है सच में,
रिश्तों को वो खूब निभाया करता है।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से