गीत/नवगीत

भव भय से मुक्त अनासक्त

भव भय से मुक्त अनासक्त, विचरि जो पाबत;
बाधा औ व्याधि पार करत, स्मित रहबत !

वह झँझावात झेल जात, झँकृत कर उर;
वो सोंपि देत जो है आत, उनके बृहत सुर !
जग उनकौ लहर उनकी हरेक, प्राणी थिरकत;
पल बदलि ज्वार-भाटा देत, चितवन चाहत !

चहुँ ओर प्रलय कबहु लखे, लय कभू लगे;
विलयन की व्यथा मीठी लगे, साधना मखे !
आधार धार कबहु बहत, ऊर्द्ध्व भाव बह;
‘मधु’ त्रिलोकी की तर्ज़ सुनत, जगत में रमत !

— गोपाल बघेल ‘मधु’