कहानी

बदलती बयार

गाँव के टोले टोले से ढोलक की थाप और फगुआ के बोल से होली के आगमन की आहट हो रही थी।उमंगों से भरे मन तो बस मौका ढूंढते हैं उल्लासित होने का और आज तो मौका भी था और दस्तूर भी ।
    एक तरफ तो चारों ओर चहल पहल थी वहीं दूसरी ओर एक घर में दो प्राणियों में दो दिनों से अनबोला था।
    ” कइसन होली और कइसन रंग गुलाल । घर तो सायं सायं कर रहा है ऊपर से मुन्ना के बाबू भी मुँह फूलाकर बैठ गये हैं ।परब त्योहार में कोई अइसे करता है भला।इस बरस फगुआ पर दोनों लड़के नहीं आ रहे थे। बड़का बेटा मुन्ना की बिटिया की परीक्षा चल रही है, वो भी बड़े क्लास की । कौन समझाए बुड़ऊ को कि हमारी पोती डाक्टरनी बनने के लिए पढ़ रही है । “
       कमलेशी ने गहरी चिढ़ से पति कैलाश को देखा और कहा , ‘काहे मुँह तिरछा किये हुए हो ,उम्र तो जवानी वाली रही नहीं पर अकड़ पुरानी वाली ही रह गई है । ‘
    स्त्री जाति इतने बड़े पर्व को यूँ ही फीका फीका कैसे बीत जाने देती। मान मनुहार करती  बोली , ऐ जी! सुनते हो…..कैलाश अभी भी चादर ओढ़े खटिया पर लेटा हुआ पत्नी की बातों को अनसुना कर रहा था।
कमलेशी को पति के इस व्यवहार पर गुस्सा तो
बहुत आया पर मौके की नज़ाकत को देखते हुए आवाज में नरमी लाते बोली—– मुन्ना के बाऊजी हाट बाजार कर आओ साथ ही थोड़े रंग गुलाल भी ले आना।कल फगुआ है और तुम ऐसे लेटे हुए हो जैसे मातम का घर हो। बच्चे मजबूरीवश  इस होली में नहीं आ रहे हैं हमारे पास ।अरे खैर मनाओ, बुढ़ापे में बच्चे पूछते तो हैं।
       पुरुष रोता नहीं है इसलिए भावुक नहीं होता ऐसा सोचना ही गलत है।पर्व में बच्चों के बिना घर काटने को दौड़ रहा था। कैलाश का मन कर रहा था पत्नी के गले लग कर फूट-फूट कर रो ले कम से कम दिल तो हल्का हो जाए पर पुरुषोचित अंह आड़े आ रहा था।
    पत्नी की इस बात पर जैसे कैलाश का सर्वांग जल गया हो , तिलमिला कर बोला —-का पूछते हैं? परब में माई बाप को झाँकने भी नहीं आए कोई। ऐ कमलेशिया! बच्चों के दोष को मत ढ़को। उ दोनों अब शहर वाले हो गयें है।अब काहे आयेंगे हमारे पास, गाँव में उनका जी लगेगा भला। सब समझते हैं हम।
     बच्चों की कमी को कमलेशी भी महसूस कर रही थी पर माँ कभी अपने बच्चों के ऊपर आँच नहीं आने देती है, पलट कर कही— खाक समझते हो ।हमारी पोती पढ़ लिख कर डाक्टरनी बनेगी तो तुम ही सीना चौड़ा कर सारे गाँव में शेखी बघारते घूमोगे  । कुछ तो समझो, मुन्ना आ जाता तो बहुरिया अकेले कैसे बिटिया का परीक्षा दिलवाती…पत्नी की बात को काटते कैलाश ने कहा ,   “फ़ालतू  बच्चों की तरफदारी मत करो कमलेशी ,तुम्हारा दुलारा पप्पुआ भी तो नहीं आया ।”
  “मुन्ना के बाऊजी सच कह रहें हैं  बिलकुल सठिया गये हो तुम।बहु की जच्चगी  को महीना दिन भी नहीं हुआ ,कैसे आता  बहू और बच्चिया को अकेले छोड़ कर।” बच्चों पर आरोप लगाते पिता को कमलेशी ने
आड़े हाथों  लिया।
    पति  पत्नी के  गरम मिजाज को देख हड़बड़ा कर खटिया छोड़ दिया।  जीवन संगिनी के आगे  हथियार डालने में ही उसने भलाई समझी और कहा , ” बाज़ार  जा कर किसके लिए रंग गुलाल लाएं ,तुम्हारे पोपली मुँह में  लगाएंगे क्या? मुँह में दाँत नहीं पेट में आंत नहीं, चली है फगुआ खेलने।
कमलेशी पति की बदलती मनोदशा को भांप गई, ” सुनो जी ! हमें तो वो वाला फगुआ याद आ रहा है जब हम ब्याह कर तुम्हारे आँगन में पैर रखे थे। शादी के चार दिन बाद ही परब था और तुम मुझे  दौड़ा दौड़ा कर रंग दिये थे।पुराने दिनों को याद करती लाज से दोहरी होती  कमलेशी  साड़ी के आँचल से चेहरा को यूँ ढंकने की कोशिश कर रही थी जैसे नवब्याहता पति से शरमा रही हो ।अपनी बातों को आगे बढ़ाती हुए  उसने फिर कहा…” कितनी नाराज़ हुई थी तुम्हारी अम्मा, जिज्जी  ने शिकायत लगा दी थी हमारी ।ढिठाई  तुम किये और डांट हमें मिली। तुम्हारा किया धरा तो धुल गया पर मुझे मुन्ने के जन्म तक भी बेशर्म ही बोलती थी अम्मा । “
    कमलेशी अतीत को छेड़ने लगी,कैलाश का मन भी उन पन्नों को पलटने लगा जब नासमझ उम्र में कमलेशी को धर्मपत्नी बना कर लाये थे।अल्हड़ सी दुल्हन को एक नजर देखने के लिए कितनी कोशिश करनी पड़ती थी।
     फाल्गुन मास में बौराये आमों की गंध और फूलते पलाश के पेड़ो के साथ बालिका  वधू के साथ बिताये हसीन पलों  की यादें तन के साथ मन को भी बौरा दिया ।फाल्गुनी रंग और गंध की मादक धारा में  वृद्धा पत्नी चित्ताकर्षक लग रही थी। बगल कठौती में आटा रखा था,एकाएक कैलाश उठा ,सारा आटा अपनी बुढ़िया के ऊपर उढ़ेल दिया…बुरा ना मानो होली है ।
ला , थैला दे, बाजार कर आऊँ।फगुआ का रंग कैलाश पर चढ़ चुका था।शरारत से वृद्ध की आँखे चमकने लगी। झन..झन..झन ,कमलेशी को लगा भीतर तक पति  ने फगुआ का तराना छेड़ दिया हो। ढोल के थाप के साथ  गाँव के युवा फिल्मी गानों पर थिरक रहे थे…….’अंग से अंग लगाना, सजन मोहे ऐसी रंग लगाना।’
 पिया के संग खेले   होली के अनोखे रंग में रंगी  कमलेशी  थैला पकड़ाते हुए मुट्ठी में छुपा  कर रखी हल्दी पति के गाल पर मल दी ।   टेसू ने रंग बिखेर दिये थे। महुआ भी झूम झूम कर इन दो प्रेमियों के शरारती हरकतों पर इठला रही थी।
— किरण बरनवाल 

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।