कविता

तुम्हारा एहसास

तुम्हारे प्रेम पाश से चाहकर भी,
खुद को मुक्त नहीं कर पाती हूं।
जितना छटपटाती हूं निकलने की खातिर,
उतनी ही दृढ़ता से फिर उलझ जाती हूं।

सभी संभव प्रयास के बाद भी,
मैं खुद को बेबस ही पाती हूं।
सांसे अवरुद्ध हो जाती हैं,
मगर तुम्हारे आधिपत्य से बच नहीं पाती हूं।

तुम्हारे सानिध्य की ‘कल्पना’ में इक छिपा ‘राज’ है
जिसे लाख कोशिश के बाद भी,
मैं समझ नहीं पाती हूं।
तुम्हारे प्रेम पाश से चाह कर भी,
खुद को मुक्त नहीं कर पाती हूं।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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