कविता

आतंकवाद 

क्यों ढाहते हो तुम जुल्म इतना,
क्यों करते हो तुम अपनी मनमानी,
बस इतनी सी बात बता दो तुम,
क्या तुम्हारे अंदर इंसानियत नहीं रह गया है बांकी ।
आये दिन अखबारों के पन्ने,
भरे रहते हैं तुम्हारे कारनामों से,
तुम कहते हो लेते हो तुम बदला,
क्या है यह सही तुम्हारा इरादा।
करते हो तुम बात जिहाद की,
कभी करते हो बात इंसाफ की,
क्या कभी सोचा है तुमने,
क्या हालत होती है इंसानों की।
कभी करते हो बमों का धमाका,
कभी करते हो तुम कत्लेआम,
कैसे करोगे अपने गुनाहों का तुम हिसाब,
क्या कभी सोचा है इतनी सी बात।
कितने ही औरते हो गयी विधवा,
कितने ही बच्चे हुए अनाथ,
मानवता धू-धू कर जल गई,
तुमने फैलाया ऐसा आग।
न जाने कितने ही नौजवानों को ,
तुमने कर दिया है गुमराह,
छूट गया उनका घर – परिवार ,
मिट ही गयी उनकी दुनिया।
तुमने कितने ही कसाब हैं बनाये,
पैदा कर दिए कितने हीअफजल,
तुम्हारे दहशतगर्दों के कारण ही,
दलदल बन गयी है सारी दुनिया।
आज रो रही है दुनिया,
बढ़ रहा है अंधकार का साया,
इतनी तबाही मचाने के बाद भी,
क्यातुमने कुछ भी  है पाया।
अब तो खत्म करो तुम ये अत्याचार,
कहाँ से आता है तुम्हारे मन में ऐसा कुविचार,
क्या जवाब दोगे तुम अपनी खुदा को,
 जब कभी भी जाओगे तुम उनके द्वार।
— बिप्लव कुमार सिंह

बिप्लव कुमार सिंह

बेलडीहा, बांका, बिहार