धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

गुरु विरजानंद की प्रेरणा से ऋषि दयानंद ने देश से अविद्या दूर की

ओ३म्

ऋषि दयानन्द एक सत्यान्वेषी सत्पुरुष थे। वह सच्चे ईश्वर को प्राप्त करने तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में अपने घर से निकले थे। उन्होंने देश के अनेक भागों में जाकर धार्मिक पुरुषों के दर्शन करने सहित उनसे उपदेश ग्रहण किये थे। इसके साथ ही उन्होंने यात्रा में मिले ग्रन्थों का अध्ययन किया था तथा अनेक गुरुओं से योग की शिक्षा भी प्राप्त की थी। उनके योग के दो गुरु श्री ज्वालानन्द पुरी तथा श्री शिवानन्द गिरी थे। इन गुरुओं से उन्हें योग विद्या का ज्ञान हुआ तथा योग के अभ्यास द्वारा समाधि की सिद्धि हुई। स्वामी जी के योगी बन जाने और ईश्वर साक्षात्कार कर लेने पर भी उनकी विद्या प्राप्ति की पिपासा शान्त नहीं हुई थी। उन्हें अपने संन्यास गुरु स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से अपने एक शिष्य प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती का पता मिला था जो मथुरा में रहकर एक पाठशाला में अपने शिष्यों को वेद व्याकरण का अध्ययन कराते थे और शिष्यों के धर्म व विद्या विषयक शंकाओं के समाधान करते थे। स्वामी दयानन्द सन् 1860 में उनके पास पहुंचे थे और उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था। स्वामी दयानन्द जी की विद्या लगभग 3 वर्ष में पूरी हुई थी। विद्या पूरी होने पर गुरु दक्षिणा के अवसर पर गुरु विरजानन्द जी ने ऋषि दयानन्द को अपनी हृदय की इच्छा को दयानन्द जी के सम्मुख प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था कि महाभारत यद्ध के बाद से वेद विद्या का ह्रास होते होते वेद ज्ञान विलुप्ति के कागार पर है। तुम वेद विद्या वा ज्ञान से सम्पन्न हो। देश के लोग अविद्या के कारण नाना प्रकार के दुःख व कष्ट भोग रहे हैं। इन सबका कारण अविद्या व अविद्यायुक्त मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध जैसी परम्परायें व क्रियायें हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु की भावनाओं को यथावत् समझ लिया था। वह जान गये थे गुरुजी मुझसे अविद्या व अन्धविश्वासों का खण्डन तथा वेदज्ञान व मान्यताओं का मण्डन कराना चाहते हैं। गुरु जी चाहते थे कि दयानन्द जी संसार से मत-मतान्तरों की अविद्या को दूर कर वेद विद्या के आधार पर एक ज्ञान व विज्ञान से युक्त देश व समाज का निर्माण करें। ऋषि दयानन्द ने कुछ क्षणों में ही गुरु जी के प्रस्ताव पर विचार किया और उन्हें अपनी स्वीकृति दी थी। उन्होंने कहा था कि आप आने वाले दिनों में देखेंगे कि आपका यह शिष्य आपको दिये गये अपने वचनों का प्राणपण से पालन कर रहा है।

गुरु को वचन देने के बाद स्वामी दयानंद मथुरा से आगरा आकर कई महीनों तक रहे और वहां कथा तथा प्रवचन करते रहे। इसके साथ ही वह अपने प्रचार की भावी योजना भी तैयार करते रहे थे। यहां रहकर स्वामी दयानन्द जी ने मूल वेदों को प्राप्त करने का प्रयास किया था। मिलने पर वह इसकी खोज में आगरा से ग्वालियर, धौलपुर, जयपुर, करौली आदि स्थानों पर गये थे। इनमें से किसी एक स्थान से आपको चार वेदों की मन्त्र संहितायें प्राप्त हुई थी, ऐसा हमारा अनुमान है। इसके बाद आपने करौली में कई महीने रहकर वेदों की परीक्षा कर अपने सिद्धान्तों को अन्तिम रूप दिया था। इसी क्रम में हम देखते हैं कि स्वामी जी पुष्कर के मेले में जाते हैं और वहां प्रचार और सुधार के काम करने आरम्भ करते हैं। आपका ईसाईयों से संवाद भी होता है। पुष्कर से स्वामी अजमेर आये थे और यहां उन्होंने पादरी राबिन्सन, ग्रे और शुल्बे्रड के साथ जीव, ईश्वर, सृष्टिक्रम तथा वेद विषय पर तीन दिन तक संवाद किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी ने इससे पूर्व मत-मतान्तरों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन भी कर लिया था जिससे उन्हें सत्यासत्य के निर्णयार्थ खण्डन-मण्डन करने सहित मत-मतान्तरों के लोगों को सत्य का ग्रहण कराने और असत्य को छुड़वाने में सफलता प्राप्त हो सके।

लगभग इन्हीं दिनों हरिद्वार में कुम्भ का मेला आरम्भ होने वाला था। यहां देश भर से पौराणिक धर्म भावना आस्था रखने वाले बन्धु आते हैं। यहां प्रचार का अवसर देखकर स्वामी जी हरिद्वार पहुंचे थे और यहां आपने पाखण्ड खण्डिनी पताका भी लगाई थी। यहां रहकर आपने जो प्रचार किया उसका लोगों पर वह प्रभाव नहीं हो रहा था जो होना चाहिये था। इससे स्वामी जी को कुछ निराशा रही होगी। इसी कारण उन्होंने मौन व्रत भी रख लिया था। तभी उन्हें अहसास हुआ कि मौन रहने से तो उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। उसके लिये तो वेद प्रचार खण्डन-मण्डन आवश्यक है, अतः आपने अपना मौन व्रत भी तोड़ दिया था। यहां स्वामी जी ने जो चिन्तन किया उसका लाभ उनके भावी जीवन के कार्यक्रमों में दृष्टिगोचर होता है। हरिद्वार के बाद स्वामी जी का मुख्य पड़ाव हम काशी में देखते हैं जहां उन्होंने काशी के दिग्गज विद्वानों से मूर्तिपूजा को वेदों का प्रमाण देकर सिद्ध करने की चुनौती दी थी। अनेक बार स्वामी जी की चुनौती की उपेक्षा करने पर काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह की आज्ञा देने पर काशी के पण्डित स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिये तैयार हुए। इसके लिये 16 नवम्बर, सन् 1869 की तिथि निर्धारित की गई थी।

काशी के आनन्द बाग पचास लोगों की उपस्थिति में निर्धारित तिथि को शास्त्रार्थ हुआ। स्वामी दयानन्द अकेले थे और दूसरी ओर लगभग 30 विद्वान थे जिनसे स्वामीजी ने शास्त्रार्थ किया। मूर्तिपूजा पर काशी के पण्डितों को वेदों से प्रमाण वा वेद वचन प्रस्तुत करने थे परन्तु वह ऐसा नहीं कर सके। वहां जो प्रश्नोत्तर बातें हुई वह काशी शास्त्रार्थ में वर्णित हैं। काशी के लगभग शीर्ष 30 पण्डितों में से कोई एक भी मूर्तिपूजा के पक्ष में वेदों का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका। अतः मूर्तिपूजा का आधार वेद न होकर वेद विरुद्ध कल्पना व मान्यता ही स्वीकार किया जा सकता है। इस शास्त्रार्थ में पौराणिकों ने अनेक प्रकार के विघ्न डाले। काशी नरेश पौराणिक पक्ष की ओर झुके थे। वह न्याय का पालन नहीं कर सके और उन्होंने भी स्वामी दयानन्द के विरुद्ध अपना मत दिया जबकि वास्तविकता यह थी कि काशी के पण्डित शास्त्रार्थ अधूरा छोड़कर चले गये थे। इसके बाद सत्य को स्वीकार न करने, पण्डितों के मूर्तिपूजा व पौराणिक कर्मकाण्डों यथा तीर्थ महत्व व उनमें स्नान आदि से स्वार्थ जुड़े होने के कारण स्थिति यथापूर्व रही। स्वामी जी का मूर्तिपूजा आदि अन्धविश्वासों को छुड़वाने का प्रयत्न सफल न हो सका। इस कारण स्वामी जी ने अपने उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये नये उपायों पर विचार किया और इसके बाद हम देखते हैं कि वह कोलकत्ता सहित बंगाल के अनेक स्थानों, महाराष्ट्र के पूना तथा मुम्बई आदि अनेक स्थानों सहित राजस्थान की कुछ रिसायतों में जाकर वहां के प्रमुख व्यक्तियों व रजवाड़ों आदि से मिलकर वेद प्रचार करते हैं। स्वामी जी ने अपनी पूरी सामथ्र्य लगाकर लोगों को वैदिक मत को स्वीकार कराने का प्रयत्न किया। स्वामी जी ने कालान्तर में पंजाब का भी दौरा किया। उन दिनों पूरा पाकिस्तान पंजाब का भाग था। स्वामी जी ने पंजाब के अनेक स्थानों में आर्यसमाजें स्थापित की। वहां उन्हें अन्य स्थानों से अधिक सफलता मिली। पंजाब में ही उन्हें स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द आदि अनेक सहयोगी मिले जिन्होंने आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

स्वामी दयानन्द जी ने अपने गुरु को दिये वचन को पूरा करने के लिये मुम्बई में उनके कुछ शिष्यों के अनुरोध पर वेद धर्म के प्रचार के लिए आर्यसमाज संगठन संस्था की स्थापना चैत्र शुक्ल पंचमी तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को की थी। इसका मुख्य उद्देश्य वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताकर वेदों को पढ़ने पढ़ाने तथा वेदों के सुनने सुनाने को परम धर्म निश्चित किया गया था। आर्यसमाज की स्थापना के अनन्तर ऋषि ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया जिसमें सर्वप्रमुख सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणाविधि आदि हैं। स्वामी जी ने यजुर्वेद भाष्य से वेदभाष्य लेखन का कार्य आरम्भ किया था और यजुर्वेद तथा ऋग्वेद का साथ-साथ भाष्य किया। यह भाष्य वह संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में कर रहे थे। यजुर्वेद की मन्त्र संख्या कम होने से वह पहले समाप्त हो गया। ऋग्वेद का भाष्य का कार्य चल रहा था। उसके बाद सामवेद तथा अथर्ववेद का भाष्य भी आरम्भ किया जाना था। ऋग्वेद के सातवें मण्डल का भाष्य चल रहा था तभी स्वामी जी को जोधपुर में एक षडयन्त्र के अन्तर्गत उनके पाचक के द्वारा विषपान कराया गया। इसके कुछ दिनों बाद 30 अक्टूबर सन् 1883 को अजमेर में दिवाली के दिन ऋषि दयानन्द का देहावसान हो गया जिससे वेदभाष्य का कार्य पूरा न हो सका। इस कार्य को उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने पूरा किया। वर्तमान में अनेक वेदभाष्यकारों के वेदानुकूल प्रामाणिक भाष्य उपलब्ध हैं। अपनी मृत्यु से पूर्व तक ऋषि ने देश के अनेक भागों में जाकर वेद प्रचार किया था। अनेक स्थानों पर आर्यसमाजें स्थापित हुई थीं जहां नियमित रूप से सत्संग होने लगे थे। सत्यार्थप्रकाश तथा अन्य ग्रन्थों का पाठ भी होता था। प्रवचन व भजन आदि भी किये जाते थे।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में अपने गुरु स्वामी विरजानन्द जी को दिये वचन का प्राणपण से पालन किया। इसका पूरा ज्ञान ऋषि दयानन्द के पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, श्री हर विलास शारदा, राम विलास शारदा, मास्टर लक्ष्मण आर्य तथा डा. भवानी लाल भारतीय आदि के जीवन चरितों को पढ़कर प्राप्त किया जा सकता है। स्वामी श्रद्धानन्द और पं. लेखराम जी द्वारा आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से ऋषि दयानन्द के विस्तृत जन्म चरित की खोज कराकर उसका सम्पादन प्रकाशन कराकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। यदि यह दो व्यक्ति होते तो आज हम ऋषि दयानन्द जी के जीवन से जिस व्यापकता से परिचित होते हैं, वह हो पाते। इन महापुरुषों को हम नमन करते हैं। इस लेख में हम यह बताना चाहते हैं कि मथुरा में गुरु विरजानन्द जी को अविद्या दूर करने तथा वेदों के प्रचार का ऋषि दयानन्द ने जो वचन दिया था उसे उन्होंने एक अद्वितीय सच्चे शिष्य के रूप में पूरा करने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से कार्य किया। वह जीवन में अनेक विपत्तियों के होते हुए भी कभी निराश नहीं हुए। ईश्वर के भरोसे वह आगे बढ़ते रहे। वेद प्रचार के लिये ही उन्होंने विषपान करके अपनी भौतिक देह को वैदिक धर्म की वेदी पर समर्पित किया। हमें संसार में ऋषि दयानन्द के समान दूसरा कोई महापुरुष व वेदों वाला ऋषि दृष्टिगोचर नहीं होता। आज का आर्यसमाज उनके उद्देश्यों व स्वप्नों को पूरा करने में शिथिल दीखता है। आर्यों को अपनी महत्वाकांक्षायें छोड़कर संगठन को मजबूत करना होगा। गुण, कर्म व स्वभाव को महत्व देना होगा। समाज के सिद्धान्तों को समर्पित होकर पालन करने के साथ दिग्दिगन्त वेद प्रचार करना होगा तभी वैदिक धर्म व संस्कृति बच सकेगी। आज हमारा उद्देश्य कृण्वन्तो विश्वमार्यम् बहुत पीछे रह गया है। आज की चुनौती वैदिक धर्म की रक्षा करने की है। कल क्या होगा कोई नहीं जानता। हमें अपने आन्तरिक शत्रुओं को भी पहचानना होगा और उन्हें बाहर करना होगा। इति ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य