कविता

ज़िन्दगी की किताब

लड़ रहा एक लड़ाई रोज़ खुद ही से मैं इस तरह
मौन हूँ पर भीतर शोर का सैलाब नज़र आता है
पढ़ रहा हूँ ज़िन्दगी की किताब मैं कुछ इस तरह
हर सफ़हा यूँ मेरे अश्कों के निशान लिए जाता है
हर सफ़हे पर नज़र आ रहे हमदर्द मेरे इस तरह
मुझे हर अपना न जाने पराया सा दिखाई देता है
अल्फाजों को पिरोया है सफहो में कुछ इस तरह
यहां लिखा हर अल्फ़ाज़ अपनी कहानी कहता है
जुड़ रहे हैं,सफ़हे दर सफ़हे ज़िन्दगी के इस तरह
हर किस्सा यहाँ दिलचस्प कहानी लिए रखता है
— आशीष शर्मा ‘अमृत’

आशीष शर्मा 'अमृत'

जयपुर, राजस्थान