धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर से प्रतिदिन स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की प्रार्थना करनी चाहिये

ओ३म्

मनुष्य अपने जीवन में सुख चाहता है। सुख का आधार हमारा स्वास्थ्य होता है। सुख की यदि परिभाषा पर विचार करें तो वह सुख शब्द से ही प्राप्त होती है। सुख शब्द सु व ख इन दो अक्षर व पदों की सन्धि से बना एक शब्द व पद है। सु का अर्थ सुन्दर, श्रेष्ठ व अच्छा होना होता है और ख इन्द्रियों को कहा जाता है। इसका अर्थ है कि जिस मनुष्य की सभी इन्द्रियां सु अर्थात् सुन्दर, सुदृण, निरोग, विकार रहित व बलवान हैं। वही मनुष्य सुखी कहलाता है। यही सुख की वास्तविक स्थिति भी है। यदि हमारा शरीर स्वस्थ एवं बलवान है, पूरी तरह से रोग रहित है, शरीर के सभी अंग प्रत्यंग अपने कार्य भली प्रकार से कर रहे हैं, तो हम सुखी कहे जा सकते हैं। यदि हमारा शरीर सुखी है तो हम किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन को इच्छित स्वरूप व लक्ष्य को प्राप्त करा सकते हैं। हम एक योग्य शिक्षक व प्रचारक बन सकते हैं तथा शरीर में बल की यथासम्भव वृद्धि कर उससे निर्बलों व अन्याय पीड़ितों की रक्षा भी कर सकते हैं। वेद भी हमें स्वस्थ व बलवान बनने की प्रेरणा करता है। वेदों की प्रार्थना है हे ईश्वर आप तेज से युक्त हैं मुझे भी तेजस्वी बनाईये। आप वीर्यवान हैं मुझे भी अपने जैसा वीर्यवान बनाईये। आप बलवान हैं मुझे भी बलवान बनाईये। आप ओज से युक्त हैं मुझे भी ओजस्वी बनायें। आप दुष्टों पर क्रोध करने वाले उन्हें दण्ड देने वालें हैं मुझमें भी आपके समान यह गुण वृद्धि को प्राप्त हो। आप सहनशील हैं मुझे भी सहनशील बनायें जिससे मैं जीवन में सभी प्रकार के कष्टों को सहन कर सकूं उन पर विजय प्राप्त कर सकूं।’ जब हम ईश्वर से इस प्रकार की प्रार्थना करते हैं तो हमारा कर्तव्य होता है कि ऐसा मुनष्य बनने के लिये अपनी पूरी सामर्थ्य व पुरुषार्थ से इन गुणों को प्राप्त हों। हम समाज में इन गुणों से युक्त अनेक व्यक्तियों को देखते हैं। एक व्यक्ति में सभी गुण का होना तो कठिन है परन्तु देश व समाज में कोई मनुष्य अत्यन्त वीर्यवान है तो कोई बलवान्, कोई तेजस्वी है तो कोई ओजस्वी है, कोई अन्यायकारियों का दमन करने वाला है तो कोई सहनशीलता में अद्वितीय है। अतः वेदों की इस प्रार्थना को सार्थक कर हम अपने जीवन को इन गुणों से युक्त कर सुखी व आनन्द से युक्त हो सकते हैं।

मनुष्य जब अपने जीवन पर विचार करता है तो अपनी मृत्यु का विचार आने पर वह शोक दुःख से युक्त हो जाता है। इस स्थिति में भी उसे वैदिक सिद्धान्त सन्तोष शान्ति प्रदान करते हैं। वैदिक सिद्धान्त उसे बताते हैं कि तू एक अनादि नित्य, अनुत्पन्न तथा अमर, जन्म-मरण धर्मा तथा सद्कर्मों को करने की सामथ्र्य रखने वाला, ज्ञान प्राप्ति कर योगाभ्यास द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने वाला, सद्कर्मों तथा ईश्वर साक्षात्कार से जन्म मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होने वाला, मोक्ष में सभी प्रकार के दुःख कष्टों से मुक्त होकर 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों तक ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द अनुभव करने वाली चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी तथा ससीम सत्ता है। मनुष्य को यह ज्ञात होता है कि ईश्वर की भक्ति उपासना से ईश्वर की साधना करके आत्मा को सुख शान्ति की अनुभूति होती है। आत्मा के सभी भय, शोक, चिन्तायें एवं दुःख दूर हो जाते हैं। इस स्थिति को प्राप्त होकर वह वेदमार्ग का चयन करता है और ईश्वर को जानने के लिये वेदों का स्वाध्याय करते हुए ईश्वर को प्राप्त करने के लिये साधना करता है। जिस प्रकार हम एक-एक कदम चलकर अपने लक्ष्य की ओर पहुंचते हैं इसी प्रकार उचित विधि से साधना करने से हम प्रति क्षण ईश्वर के निकट से निकटतम होते जाते हैं। ऐसा करते हुए मनुष्य के जीवन से सभी दुरित व अशुभ कर्म दूर हो जाते हैं। वह सच्चा मानव, एक सच्चा ईश्वर भक्त, उपासक, साधक, जिज्ञासु, श्रद्धावान तथा ईश्वर सेवक बनकर अपने जीवन में दुःखों से रहित होकर सात्विक व अलौकिक सुख का अनुभव करता है। वह उपासना के बड़े बड़े लक्ष्य निर्धारित करता है और उससे लाभ प्राप्त कर सन्तुष्ट होता है। यह स्थिति समाज में सभी मनुष्यों की नहीं होती परन्तु जिनका प्रारब्ध सात्विक कर्मों से युक्त होता है, वह वेद की शरण में आ ही जाते हैं और वेदाचरण करते हुए अपने जीवन को सफल करते हैं। सृष्टि के आदि काल से महाभारत युद्ध व उसके पश्चात के महान पुरुषों पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हमारे देश में ऋषि परम्परा रही है। सभी ऋषि व योगी इन्हीं सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने जीवन को ऊंचा उठाते थे और सहजता से अपने प्राणों का त्याग कर मुक्ति को प्राप्त होते थे। न केवल ऋषि अपितु राजवर्ग एवं साधारण प्रजा भी वेद मार्ग पर चलकर अपने जीवन को कृतकार्य करती थी। आज भी वेदमार्ग का आचरण ही मनुष्य को उसके मनुष्य जीवन की सफलता को प्राप्त कराता है। अन्य कोई मार्ग मनुष्य जीवन की सफलता प्राप्त करने का नहीं है।

वेदों में प्रतिदिन प्रातः सायं सन्धि वेला में ईश्वर की उपासना वा सन्ध्या करने का विधान है। महर्षि दयानन्द जी ने सन्ध्या विधि की पुस्तक लिख कर मानव जाति पर महान उपकार किया है। हम सन्ध्या में ईश्वर के उपकारों को स्मरण कर उनका धन्यवाद करते हैं। इस विधि में उपस्थान के मन्त्रों में ईश्वर से स्वास्थ्य एवं सुख सम्बन्धी महान महत्वपूर्ण प्रार्थनायें की गई हैं। हम उपस्थान मन्त्रों का एक मन्त्र प्रस्तुत कर उसके अर्थ का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे वैदिक परम्परा से अनभिज्ञ बन्धु भी परिचित हो सकें व इससे लाभ उठा सकें। मन्त्र है। ‘ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतम् जीवेम शरदः शतम् श्रृणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्य शरदः शतात्।।’ इस मन्त्र का भावार्थ है कि हमारा ईश्वर सर्वद्रष्टा और इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु व पदार्थ को देखने व जानने वाला है। वह अपने भक्तों, उपासको व याचकों का हितकारी और परम पवित्र है। वह कभी अनिष्ट चिन्तन नहीं करता जैसा कि मनुष्य प्रायः करते रहते हैं। ऐसा करके वह परम पवित्र बना रहता है। इस सृष्टि का कर्ता परमेश्वर अनादि व नित्य है और इस सृष्टि के बनने से पूर्व से ही समस्त ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापकस्वरूप से प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। उस सर्वशक्तिमान एवं दयालु परमेश्वर की कृपा से हम अपने जीवन में सौ वर्ष तक अपनी आंखों से स्पष्टतः व निरोग व आंखों में किसी प्रकार का विकार आये देखते रहें।  हम सौ वर्ष तक जीवित रहें अर्थात् हमारी आयु एक सौ वर्ष से कम न हो। हम अपने कानों से एक सौ वर्ष तक बिना किसी बाधा के सुनते रहे अर्थात् हमारे कर्ण सारी आयु निर्दोष रहें। हमारी वाणी हमारे शरीर व अन्य सभी इन्द्रियों की भांति स्वस्थ रहते हुए सामान्य व्यवहार करे, ईश्वर की स्तुति के गीत गाती रहे और उसका जन-जन में प्रचार करती रहे। हम सौ वर्ष की आयु तक स्वतन्त्र रहें, किसी के पराधीन न हों तथा परिवारजनों व अन्य किसी पर निर्भर व आश्रित न हों। अपने उस परम प्रिय परमेश्वर की कृपा से हम न केवल एक सौ वर्ष अपितु उससे भी अधिक समय तक सुखपूर्वक जीवित रहें और सामान्य स्वतन्त्र व सुखी जीवन व्यतीत करते रहे।

हम सन्ध्या में प्रतिदिन प्रातः सायं उपर्युक्त प्रार्थना को करते हैं। ईश्वर हमारी अन्तरात्मा में विराजमान होकर हमारी प्रार्थना स्तुति वचनों को सुनता है। वह दयालु एवं कृपालु है तथा सर्वशक्तिमान भी है। अतः हमारी पात्रता के अनुरूप वह हमारी प्रार्थना को स्वीकार करता है। हम अनुभव करते हैं कि सभी वैदिक धर्मी अत्यन्त भाग्यशाली हैं जहां उन्हें इस प्रकार से प्रतिदिन ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करने का अवसर मिलता है। आप वेदेतर सभी मतों की प्रार्थनाओं को देख लें। हम अनुभव करते हैं कि आपको वेदों के समान उच्च विचारों एवं भावनाओं से युक्त प्रार्थनायें एवं विचार किसी मत में नहीं मिलेंगे। हमारा कर्तव्य है कि यदि हम ईश्वर की उपासना नहीं करते तो आज ही आरम्भ कर दें। हमें यह विदित होना चाहिये कि ईश्वर से हमारा उपास्य-उपासक, ध्याता-ध्येय, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, राजा-प्रजा तथा आचार्य-शिष्य का शाश्वत् सम्बन्ध है। इसे हमें कदापि विस्मृत नहीं करना चाहिये।

मनुष्य का आत्मा और ईश्वर दोनों अनादि नित्य सत्तायें हैं। ईश्वर सृष्टिकर्ता है और अनादि काल से सृष्टि की रचना, पालन प्रलय करता रहा है। हम सब मनुष्य आत्मायें अनादि काल से अपने अपने पूर्वकर्मों के अनुसार जन्म लेते रहे हैं और पूर्वकर्मों का भोग कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं तथा फिर नये कर्मों के आधार पर नया जन्म पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं। हमारे हर जन्म में परमेश्वर हमारी माता, पिता, आचार्य, राजा, बन्धु, सखा, मित्र, रक्षक, धर्म प्रेरक आदि अनेकानेक स्वरूपों में हमारा मार्गदर्शन व सहयोग करता है। अतः हमें ईश्वर को एक पल के लिये भी भुलाना नहीं चाहिये। जिस प्रकार सावधानी के हटने से दुर्घटना घट जाती है इसी प्रकार से ईश्वर को भुला देने से मनुष्य पाप कर्मों में फंस जाता है जिससे उसका घोर पतन होने के साथ वह दुःखों के नरक में गिरता है। हमें इस अवस्था से बचना चाहिये और ईश्वर का प्रातः व सायं अधिक से अधिक समय तक ध्यान, चिन्तन व वेदमन्त्रों से कीर्तन व उपासना करनी चाहिये। हम ईश्वर विषयक दिव्य भजनों को गाकर भी अपनी आत्मा को दैवीय भावनाओं से युक्त कर सकते हैं।

मनुष्य को अपने जीवन में भय अपनी अज्ञानता दुष्कर्मों के कारण लगता है। यदि मनुष्य ज्ञानवान हो और अशुभ कर्मों को करे तो वह अभय निर्भयता को प्राप्त होता है। यह अभय का गुण ईश्वर की उपासना से ही आता है। ऐसा मनुष्य मृत्यु के द्वार पर खड़ा होकर भी अभय बना रहता है और आसानी से अपने प्राण छोड़ देता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की उपासना का फल बताते हुए कहा है कि जिस प्रकार अग्नि के समीप जाने से शीत की निवृत्ति और गर्मी से आकुल व्यक्ति जल को प्राप्त होकर उष्णता की निवृत्ति करता है, उसी प्रकार से सर्वगुण सम्पन्न ईश्वर की उपासना करने से मनुष्य के सभी दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दुःख दूर हो जाते हैं, उसकी आत्मा में सद्गुणों वा दिव्य गुणों का प्रवेश होता है। उसका अज्ञान दूर हो जाता है तथा आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। यहां पहाड़ के समान दुःखों में मृत्यु का दुःख भी सम्मिलित है। हम पाते हैं कि वैदिक काल में हमारे ऋषि, मुनि व योगी सहजता से से मृत्यु का वरण करते थे। आधुनिक युग में भी महर्षि दयानन्द की मृत्यु का दृश्य इसका एक आदर्श उदाहरण है। हमें भी मृत्यु का आने वाले दिनों में वरण करना है। अतः हमें वेद स्वाध्याय और ईश्वर की उपासना से अभय, निर्भीकता, आनन्द तथा मृत्यु के दुःख पर विजय प्राप्त करनी चाहिये।

परमात्मा ने हमें मनुष्य का जन्म दिया है। यह जन्म हमें श्रेष्ठ कर्म करने के लिये मिला है। श्रेष्ठ कर्म वेदों में ईश्वर की आज्ञाओं का पालन है। ऋषि दयानन्द जी ने अपने पंचमहायज्ञविधि, सत्यार्थप्रकाश तथा वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में मनुष्यों को ईश्वर की आज्ञाओं से परिचित कराया है। हमें इन ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने कर्तव्यों को जानना चाहिये और उनका आचरण करना चाहिये। हमें प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर की उपासना करनी चाहिये और उसमें अन्य सब कुछ मांगते हुए ईश्वर से स्वस्थ शरीर व अखण्ड सुख की प्रार्थना भी करनी चाहिये। सन्ध्या व ईश्वर से प्रार्थना करने से निश्चय ही हमारा जीवन सफल होगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य