हुनरमंद कितने
हुनर कितने हालात की भट्टी में , जल रहे ,
संभावनाएं कितनी ही , बेढ़ंगे नियम निगल रहे ,
प्रशासन की लचर जमीं पर फूल और फल कितने
मुरझाए खिलने से पहले, बीज कितने झर रहे ।।
वहीं
कचरे अधकचरे बीज कितने बंजरों में खिल रहे ,
पाकर तुष्टि पुष्टि सत्ता से ,भूत के अवशेष पर मचल रहे
छलनी के छोटे छेदों से गिरते पड़ते बेकार,
अनुपजाऊ बीज ,पूर्वजों की राख पर बढ़ रहे ।।
और
बेबस धरती ये सोच रही सृजक क्या कर रहे,
ये लोभी !वोट लोलुप ,उपजाऊ बीज तो खा रहे
कचरे अधकचरे बो कर ,खाद बढ़िया लगा रहे
वर्णसंकर स्वयं होकर , नस्ल असली चाह रहे
कैसा इतिहास गढ़ रहे खलिहान कहां बढ़ रहे ।।