लघुकथा

संस्कारों की जीत

संस्कारों की जीत
शीला दी,आपने तो कमाल कर दिया।सारी सोसाइटी में आपकी ही चर्चा हो रही है।
वह अतीत में खो गई।उसे आज भी अपनी शादी का दिन याद हैं।जब उसने इस सोसाइटी में कदम रखा था। सभी ने उसे देखकर नकार दिया था।वह किसी को पसंद नहीं आई थी।पर उनकी भी क्या गलती थी।हर कोई चाहता है, उसकी बहुँ पढ़ी-लिखी हो,सुन्दर हो।
मैँ ना तो पढ़ी- लिखी थी।और सुंदरता तो मुझ से कोसों दूर थी।रंग मेरा बहुत काला था, पढ़ना मुझें पसंद नहीं था।बस मेरी सास को में पसंद थीं।क्यूँ?
मैं अपनी माँ के पास जाकर रोया करती थी।तुमनें मेरी शादी कहाँ कर दी।वहाँ मेरा कोई सम्मान नहीं हैं।पति मुझ से बात तक करना पसंद नहीं करते।
बेटी मान- सम्मान रंग -रूप से नहीं मिलता,ना ही अधिक पढ़ी- लिखी होनें से मिलता हैं। माँ फिर मान- सम्मान कैसे मिलता हैं? संस्कारों से।ठीक हैँ माँ।
उस दिन के बाद मैंने सास-ससुर की सेवा करनी शुरू कर दी। धीरे-धीरे सब कुछ बदलनें लगा। मेरे संस्कारों ने मुझें सब कुछ दिला दिया। इसलिए मेरी सोसाइटी मुझें सम्मानित कर रहीं थीं। तभी पीछे से आवाज सुनाई दी, शीला मेरी बेटी बधाई हो।माँ तुम।
राकेश कुमार तगाला
1006/13 ए,महावीर कॉलोनी
पानीपत-132103
हरियाणा
Whatsapp no-7206316638
Email-tagala269@gmail.com

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