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निराला साहित्य समिति की ऑनलाइन गोष्ठी

मंडला– प्रदीप अग्रवाल,पूर्व विधायक – सेवढ़ा के मुख्यातिथ्य,प्रो.शरद नारायण खरे,प्राचार्य-शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय, मंडला के विशिष्टाथित्य तथा प्रभुदयाल खरे की अध्यक्षता में निराला साहित्य जन-कल्याण समिति (बरेली-म.प्र) की ऑनलाइन पावस-गोष्ठी का आयोजन गत दिवस संपन्न हुआ। मुख्य अतिथि ने साहित्य की महत्ता पर प्रकाश डाला ।
विशिष्ट अतिथि  सुप्रसिध्द साहित्यकार प्रो.शरद नारायण खरे जी,मंडला ने  रिश्तों की बढ़ती हुई दूरियों पर कुछ यूँ तंज कसा-
“बढ़ता जाता दर्द नित्य ही ,संतोपों का मेला
अपनों की है भीड़,हक़ीक़त में हर एक अकेला
कौन सुनेगा किसे सुनायें, यहाँ सभी बहरे हैं।
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं।।”

वहीँ मधुर कंठ की सरस कवयित्री डॉ.नीलम खरे जी, मंडला)ने पावस गोष्ठी को जीवंत करते हुये गीत से समा बांधा-
“बरखा बादल बिजली पानी पावस के आयाम।
शीतल मंद समीर फुहारें सब सावन के नाम।।
गरज रहे घन चपल दामिनी कौन करे आराम।
शीतल मंद समीर फुहारें सब सावन के नाम।।”
हास्यकवि कुलदीप रंगीला ,देवास ने कोरोना काल की विसंगतियों पर यूँ व्यंग्य-बाण छोड़े-
“ब्यूटीपार्लर खुलेगा कब ये पत्नी पति से पूँछें,
दो महीने में निकल चुकी हैं साजन मुख पर मूँछे,
।।”
राजेंद्र चौहान “पुष्प” ने अपनी कविताओं के व्यग्य-बाण छोड़े, और लॉक डाउन में मजदूरों की पीड़ा को बयान किया।
डॉ. लता “स्वरांजलि” ने अपनी ग़ज़ल में पावस की मदहोशियों को यूँ उकेरा-
“मैं इक दर्द-ए-मुसलसल हो गई हूँ।
तेरी चाहत में पागल हो गई हूँ।।
मैं सावन की घटाओं से बदलकर,
कोई भादों का बादल हो गई हूँ।।”
नवोदित कवि संतोष रावत(चरगांव) ने भी काव्य-पाठ किया।
अध्यक्षता कर रहे आदरणीय प्रभुदयाल खरे “गज्जे भैया” (बरेली) ने सियासत पर तंज करते हुये गीत पढ़ा-
“चाहे दिल्ली मुम्बई हो लखनऊ या देहरादून।
सविधान के रखवालों ने लूट लिया कानून।।”
इस पावस-गोष्ठी का सरस व कुशल संचालन सुविख्यात कवयित्री डॉ. लता “स्वरांजलि” ने किया। सभी अतिथियों व रचनाकारों आभार अध्यक्ष महोदय गज्जे भैया ने व्यक्त किया। निराला साहित्य जन कल्याण समिति की ओर से सभी को ऑनलाइन सम्मान-पत्र भेंट किये गये। अंत में समिति की प्रशंसा में प्रो.शरद नारायण खरे ने कहा—

         “हमने पत्थर पिघलते देखा है
          कांटों में फूल खिलते देखा है
          इक दिन उजाला करेंगे,
          क्योंकि हमने सूरज निकलते देखा है ।
— प्रो.एस एन खरे