लघुकथा

दान-दक्षिणा

बेटा,घर पर हवन,पूजा-पाठ करवा लो।कितनी बार कह चुकी हूँ?पर तुम सुनते ही कहाँ हो अपनी बूढ़ी माँ की बात?बेटा घर में शांति बनी रहती है इन शुभ कार्यो से।ठीक है माँ जल्दी ही करवा लूँगा।वह रूखी सी हँसी हँसता हुआ बोला।माँ,तुम ज्यादा चिन्ता ना किया करो!कैसे ना करूँ चिन्ता? अभी तो मै बैठी हूँ जब चल बसूँगी तब तुम कर लेना अपने मन की।क्या माँ तुम भी ना,ये मरने की बात ना किया करो।मेरा मन उस घड़ी के बारे में ही सोच कर डर जाता है।
बेटा ये तो प्रकृति का नियम है।जो भी इस संसार में आया है।उसे एक ना एक दिन चले जाना है।फिर मन को इतना परेशान क्यों करना?नही माँ मेरी उम्र भी तुम्हें लग जाए।ना बेटा ना अपने मुहँ से ऐसी कठोर बातें ना बोला कर।
घर के बाहर शनि देव की महिमा के गीत चल रहे थे।आज शनिवार है बेटा जाकर सरसों का तेल चढ़ा आ बाबा को।माँ जो बाहर खड़ा है उसे।हा,बेटा जल्दी कर खाली हाथ ना चला जाए।बेटा हम इसे तेल देगे तो सीधा शनि देवता को चढ़ेगा।हमारे परिवार से शनि का भार उतर जाएगा।
चलो माँ, आज तुम्हें इन शनि बाबा का असली रूप दिखाता हूँ।बेटा,बाबा के बारे में ऐसी बातें मत बोला कर,पाप लगेगा।
वह बाबा के पीछे चल पड़ा माँ को लेकर।बाबा एक बनिए की दुकान पर तेल बेच रहा था।लाला ने बाबा को पैसे दिए।
पैसे लेकर वह सीधा शराब की दुकान पा गया।उसने शराब खरीदी।माँ ये देख कर पूरी तरह हैरान रह गई।उसके मुहँ से अचानक ही निकल पड़ा!ये तो बड़ा ढोंगी निकला!वह अपने बेटे से कहने लगी।इसका मतलब दान-दक्षिणा करना व्यर्थ है।नही माँ,किसी लाचार,जरूरतमंद को दान करना चाहिए।ना कि इन झूठे बाबाओं को।माँ बेटे से पूरी तरह सहमत थी।
उसने मन ही मन विचार किया।वह अब से किसी जरूरतमंद को ही दान-दक्षिणा दिया करेंगी।
राकेश कुमार तगाला

राकेश कुमार तगाला

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