कविता

स्वप्न और दृष्टि

स्वप्न था कुछ इस कदर
जब मैं ब्याहूगीं उस घर।
पति मेरा परमेश्वर हो
मुझे खुश रखना उनका लक्ष्य हो
यही था स्वप्न।
सास ससुर कुछ ऐसे हो
माता पिता जैसे हो।
ननंद देवर इतने खास हो
मुझ पर करते विश्वास हो
यही था स्वप्न।
क्यों मेरे सपने में
अंधेरा बादल सा छाया।
दृष्टि ने मुझे
अलग नजारा ही दिखाया
यह थी दृष्टि।
पति ने मेरी कदर न जानी
दहेज के लिए की मनमानी।
सास ससुर भी थे बड़े कठोर
मुझ पर कि हर प्रकार की रोक टोंक
यह थी दृष्टी।
जीवन ने मुझे ऐसे मोड़ पे लाया
सारे सपनों का गला ही दबाया।
स्वप्न तथा दृष्टि का अंतर मैंने जाना
उसे अपने जीवन का
भाग्य मैंने माना।

— रमिला राजपुरोहित

रमिला राजपुरोहित

रमीला कन्हैयालाल राजपुरोहित बी.ए. छात्रा उम्र-22 गोवा