कविता

परिवेश

परिवेश आजकल
तेजी से बदल रहा है,
आदर्शों, मर्यादाओं का भी
क्षरण हो रहा है।
अब तो औलादें भी
माँ बाप बड़ो का सम्मान
भूल रही हैं,
आत्मीयता भी खड़े खड़े
दम तोड़ रही है।
सभ्यताओं, संस्कृतियों
बुजुर्गों का बुरा हाल है,
एकल परिवारों का
दौर चल रहा है।
बड़ों को देखिए
खुद सम्मान बचाना पड़ रहा है,
अपने बच्चों, छोटों से
दब के रहना पड़ रहा है।
बहन,बेटियों का हाल क्या कहें?
उन्हें कितना जद्दोजहद
करना पड़ रहा है।
देश दुनियाँ समाज आगे बढ़ रहा है,
मगर परिवेश की आड़ में
क्या कुछ नहीं हो रहा है?
माना की खुलापन, स्वछंदता जरूरी है
मगर इसकी आड़ में बहुत कुछ
बंटाधार भी हो रहा है।
पुराने परिवेश में
आखिर क्या बुराई थी?
जो आज उसे
गँवारू कहा जा रहा है।
पुराने परिवेश में
आप पले बढ़े लायकदार हुए,
फिर उसी परिवेश पर क्यों?
कीचड़ उछाला जा रहा है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921