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विचार विमर्श- 2

इस शृंखला के दूसरे भाग में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में अपनी राय लिख सकते हैं-

1.क्या धैर्य की ताकत से कर्म पूर्ण होते हैं?

आज की चर्चा का विषय है- ‘क्या धैर्य की ताकत से कर्म पूर्ण होते हैं?’ वास्तव में धैर्य की ताकत के बिना कोई कर्म पूर्ण हो ही नहीं सकता है. आज से 70 वर्ष पूर्व बचपन में पिताजी ने चूहे के दूध में गिरने की कहानी सुनाई थी, जो बड़े धैर्य से लगातार बाहर निकलने की कोशिश करता रहा और अंत में मक्खन के पेड़े की मदद से बाहर निकल पाया. फिर स्कूल में कबीर जी का दोहा पढ़ा-
”धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।”
सत्संग में मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा सुनी और गुनी-
” धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं.”
धर्म का पहला लक्षण है धैर्य.
इतिहास साक्षी है, कि धैर्य के बिना कोई विकास या परिवर्तन नहीं हुआ, चाहे वह स्त्री शिक्षा का मुद्दा हो, बाल विवाह, सती प्रथा या फिर देश की गुलामी से मुक्ति. सबके लिए धैर्यपूर्वक साम-दाम-दंड-भेद से संघर्ष करना पड़ा.
इतिहास ही क्यों, विज्ञान भी साक्षी है, कि हर आविष्कार के लिए धैर्य से कार्य किया गया, तब जाकर सफलता मिली.
व्यावहारिक जीवन में भी पल-पल धैर्य का दामन थामने से ही कार्य पूर्ण होते हैं. तैश में आकर बिना सोचे-समझे त्वरित प्रतिक्रिया काम भी बिगाड़ती है और रिश्ते भी. लिफ्ट को आदेश देने पर वह भी तनिक धैर्य से सोचती है, कि उसे ऊपर जाना है या नीचे.
धैर्य का अर्थ है शांति से कदम उठाना. धैर्यवान होना सरल काम नहीं है, पर इस विशेषता को निरंतर अभ्यास से विकसित किया जा सकता है. जो लोग धैर्यवान होते हैं उन्हें विभिन्न मार्गो से इसका सुफल भी मिलता है.

2.क्या बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा सिर्फ मातृभाषा में देनी चाहिए?

मातृभाषा बच्चों को समझ में आने वाली भाषा है. मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए, ताकि बच्चे अपनी संस्कृति को न भूलें और जो संस्कारों का क्षरण हो रहा है उसमें भी कुछ हद तक लगाम लग सकेगी और बच्चों को अपने समाज व रिश्तों की समझ भी आएगी. मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा देना लाभकारी हो सकता है, पर सिर्फ मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा देना कतई लाभकारी नहीं हो सकता. मातृभाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है. मातृभाषा लिखना-पढ़ना-बोलना-समझना भी आना चाहिए, लेकिन मातृभाषा के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषा, राष्ट्रभाषा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा पर अच्छी पकड़ होना भी अत्यंत आवश्यक है. अनेक भाषाओं के ज्ञान से व्यक्ति की बुद्धिमता का विकास तो होता ही है, उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ता है और अनेक भाषाओं के साहित्य, इतिहास व विज्ञान की जानकारी से वह लाभान्वित होता है. रोजमर्रा के जीवन के लिए क्षेत्रीय भाषा की शिक्षा भी महत्त्वपूर्ण है. इसी तरह राष्ट्रभाषा की शिक्षा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा की शिक्षा की आवश्यकता भी निर्विवाद है. प्रारंभिक शिक्षा में प्रारंभ से ही मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देना शुरु करना चाहिए और धीरे-धीरे राष्ट्रभाषा व अंतर्राष्ट्रीय भाषा का ज्ञान भी दिया जाना चाहिए. यहां यह भी ध्यान रखना होगा, कि मातृभाषा कौन-सी है? शिक्षा की शुरुआत में शिक्षक सभी की मातृभाषा को जानता हो, यह संभव नहीं है. अगर मातृभाषा भी हिंदी है, तो सोने पे सुहागा. शिक्षा के माध्यम की बात करते समय यह भी सोचना होगा, कि हमारी कोई राष्ट्रभाषा अवश्य हो. राष्ट्रभाषा छात्रों के लिए तो लाभकारी होगी ही, राष्ट्र की एकता के लिए भी अत्यावश्यक है. निष्कर्ष यह है कि सिर्फ मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा देना कतई लाभकारी नहीं हो सकता.

3.क्या सांसारिक सुखों का परिणाम है दुःख?

दुःख के अनेक कारण हो सकते हैं. अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये दुख के तीन मुख्य कारण हैं. इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने आपसे दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन सकेगा. दुःख मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं. इनके नाम आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दुःख हैं. मनुष्य का शरीर अन्नमय है. यह शीतोष्ण आदि कारणों से रोगी होकर दुःखों को प्राप्त होता है. व्यायाम की कमी, भोजन में पौष्टिक पदार्थों की कमी, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, वैर भाव, लोभ-लिप्सा, दुर्घटना, बाढ़, अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि से भी शरीर को दुःख प्राप्त होता है. सांसारिक सुखों का परिणाम भी दुःख का कारण हो सकता है. सांसारिक सुखों की भरमार से आलस्य-अहंकार आदि उत्पन्न होता है और आलस्य-अहंकार से दुःख की प्राप्ति हो सकती है,
सुख और दुःख एक अहसास भी है. महर्षि दयानन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों जब जोधपुर में थे तो उनका शाहपुरा राज्य का रहने वाला पाचक उनके चमड़े के बैग को चाकू से काटकर उसमें से सोने व चांदी की अशर्फियां व सिक्कों को ले भागा था. वह न तो पकड़ा गया और न दण्डित ही किया जा सका. स्वामी जी को अपने उस सेवक से उसकी ऐसी करतूत की आशा नहीं थी. स्वामी जी ज्ञानी थे इसलिए उन्हें इसका वह दुःख नहीं हुआ, जो एक सांसारिक मनुष्य को हुआ करता है. यह कहा जा सकता है, कि दुःख के अनेक कारण हैं और अनेक प्रकार भी, दुःख केवल सांसारिक सुखों का परिणाम ही नहीं है.

4.क्या आत्महत्या गुस्से के कुछ पल का परिणाम है?

अक्सर कहा जाता है कि आत्महत्या का पल टल जाए, तो आत्महत्या का उठा हुआ कठोर कदम भी पीछे मुड़ जाता है, पर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आत्महत्या गुस्से के कुछ पल का परिणाम है. आत्महत्या के पीछे एक लंबा इतिहास होता है. लगातार हो रही असफलता, तनाव, उदासी, अकेलेपन का एहसास, सुनवाई न होना, किसी का साथ न देना, यौन उत्पीड़न, प्यार में धोखा, व्यापार में घाटा, अपमान, बात-बात पर नीचा दिखाने की कोशिश, किसी प्रियजन के जाने का दुःख, लंबी बीमारी आदि अनेक ऐसे कारण हैं, जिनसे कोई व्यक्ति मानसिक रूप से कमजोर होकर आत्महत्या के लिए विवश होता है. आत्महत्या करने का सबसे सामान्य कारण जो पाया गया है वह है ‘एक गलती’. दुनिया की नजर में वह गलती है या नहीं, छोटी गलती है या बड़ी, लेकिन जब उस गलती को करने वाला उसे बहुत बड़ा मानने लगे तो यह एक बड़ी दुर्घटना की ओर इशारा करता है. ऐसा अक्सर विद्यार्थियों के साथ होता है. जब कड़ी मेहनत के बाद भी वे परीक्षा में फेल हो जाते हैं या फिर उनके नंबर काफी कम आते हैं तो उन्हें यह एक बड़ी ‘गलती’ लगने लगती है.
नोएडा के आम्रपाली जोडिएक सोसायटी में शेयर ब्रोकर दंपत्ति ने क‍िया सूइसाइड. दंपत्ति ने एक द‍िन पहले रिश्तेदारों को मेल पर दुनिया में न रहने की बात लिखी थी‌. आत्महत्या का कोई भी कारण हो, अगर समय पर सही सहायता मिल जाए, तो वह पल टल जाता है. इसके लिए व्यक्ति की बात को ध्यानपूर्वक सुनना, शिद्दत से उसकी पीड़ा को महसूस करना और उसका सच्चा साथी होने का भरोसा दिलाना अत्यावश्यक है. सभी तथ्यों के ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है, कि आत्महत्या महज गुस्से के कुछ पलों का परिणाम नहीं है.

5.क्या गरीब का बच्चा सबको चोर लगता है?

अक्सर कहा जाता है-
गरीब का भूखा बच्चा भी चोर लगता है,
अमीर के घर बैठा कव्वा भी मोर लगता है.
वास्तव में न तो गरीब चोर होता है न अमीर, जिसकी नीयत खोटी होती है, वही चोर होता है. सड़क पर गुब्बारे बेचता गरीब बच्चा भी गलती से आए 1-2 अधिक रुपये लौटाने में संकोच नहीं करता, कभी-कभी छुट्टे के लिए भाग-भागकर अपने साथियों और राहगीरों से निहोरा करता दिखता है. अनेक ऐसे गरीब बच्चे देखे गए हैं, जो छोटा-मोटा सामान बेचकर धन कमाते हैं और मुफ्त के धन की भीख को स्वीकार नहीं करते हैं, फिर भी कभी-कभी उसको चोर-मक्कार का तमगा पकड़ा दिया जाता है. अमीर लाखों-करोड़ों का चूना लगाकर भी शराफत का नकाब ओढ़े रहता है. धन की चकाचौंध में उसे कोई भी सरेआम चोर कहने से कतराता है.

6.क्या जेल से मोबाइल द्वारा रंगदारी मांगना कभी बंद होगा?

जेल से मोबाइल द्वारा रंगदारी मांगने के मामले जोर पकड़ते जा रहे हैं. जेल में सजा काटना भी अपने आप में एक मजाक की बात बन गई है. भला कैदी को मोबाइल से क्या काम? उसे मोबाइल रखने की इजाजत ही नहीं होनी चाहिए, अन्यथा रंगदारी मांगने का आरोपी भेजा गया जेल और जेल से फिर रंगदारी मांगने के मामले सामने आते जाएंगे. इस तरह व्यवसायियों तथा अन्य लोगों से जेल से लाखों रुपए रंगदारी मांगी जाती रहेगी और वे दहशत में जीते रहेंगे. रंगदारी दें तो भी मुसीबत, न दें तो जान का खतरा! जब तक मन से बदनीयती नहीं जाएगी, रंगदारी तो क्या कोई भी भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो पाएगा. इसलिए जेल से मोबाइल द्वारा रंगदारी समाप्त करने के लिए सबसे पहले कैदी को मोबाइल की सुविधा से ही वंचित रखना होगा, अन्यथा अपराध पर अपराध होते जाएंगे और स्थिति नियंत्रण से परे होती जाएगी.

7.क्या विदेशी चंदे पर रोक लगनी चाहिए?

”पिता की दौलत पर क्या घमंड करना,
मज़ा तो तब है..जब दौलत अपनी हो और घमंड पिता करे.”
एक बच्चा अपने पिता की दौलत को अनाप-शनाप उड़ाता रहता था, पिता कब तक ”नेकी कर, दरिया में डाल” पर विश्वास करके चुप रहता! एक दिन उसने बेटे को कड़ाई से एक रुपया कमाकर लाने को कहा. बड़ी मेहनत से वह एक रुपया कमाकर ला पाया. पिता ने उसको वह रुपया कुंएं में डालकर आने को कहा. बच्चे की मायूस शक्ल देखने वाली थी! वह मेहनत की कद्र समझ गया था.
ऐसा ही हाल विदेशी चंदों का भी होता है. विदेशी चंदे लेकर व्यर्थ की टीमटाम, धरने-तोड़फोड़, हड़तालें-हुजूमे करवाना आसान होता है, क्योंकि वह अपना पैसा नहीं होता है. इससे देश-हित और जान-माल की हानि तो होती ही है, साथ ही विदेशी चंदा लेने वाले राजनीतिक दल विदेशों के पिट्ठू और गुलाम बन जाते हैं. कालांतर में ये ही विदेशी देश के बेखौफ आक्रांता बन जाते हैं, क्योंकि उनको चंदे के एवज में देश के राजनीतिक दलों की आंतरिक सहायता मिल जाती है.
राजनीतिक चंदे का नियमन करने के लिए जितने कानून बने हैं, उससे अधिक उन कानूनों के तोड़ भी बने हैं. नतीजा वही, ढाक के तीन पात! इसलिए बेहतर है, कि विदेशी चंदे पर रोक लगाई जाए. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी!

मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विचार विमर्श- 2

  • लीला तिवानी

    आज के कोरोना काल ने तो धैर्य की अहमियत को और अधिक बढ़ा दिया है. धैर्य के बिना न सामाजिक दूरी रखी जा सकती है, न कोरोना से बचा जा सकता है.

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