लघुकथा

जिंदा उम्मीदें

“आज के बाद मैं कभी उससे नहीं मिलूँगा चाहे कुछ भी हो जाये क्योंकि अब मेरे पास ऐसे मित्र हैं जो मुझे हमेशा खुश रखने की कोशिश करते हैं और आज उन्होंने जो वीडियो भेजा उसे देखकर  तो अब मै आराम की नींद सोऊंगा।”
बिस्तर पर जितनी शांति महसूस करते हुये वह सोया था उतना ही अशांत होकर अचानक उठ बैठा,भय के मारे पसीने से तरबतर कांपता शरीर।  उसकी आँखें बंद थीं जिन्हें खोलना चाहता था लेकिन उन रेंगते हुए कीड़ों को महसूस कर रहा था जो उसे बचपन से डरा रहे थे,अब उसने आँखें और कस कर बन्द कर ली थीं।
उस डर को वह जितना भूलने की कोशिश करता, उतना ही उसे अपने पास पाता था।
काफी ज़द्दोज़हद के बाद उसने हिम्मत कर बिस्तर की साइड में रखा हुआ मोबाइल उठाया और वही वीडियो निकाला जिसे देखकर वह सोया था जैसे-जैसे वीडियो चलता गया उसके मन के भाव बदलते गये और अंत में वह एक दम शांत हो गया था। अब उसे वह जीवन-सूत्र मिल गया था जिसमें जीने के लिये उम्मीदों की रोशनी थी।
 वह धीरे से उठा और अलमारी खोलकर वहाँ छुपाई हुई एक डायरी निकाली और उसके एक-एक पन्ने को फाड़ने लगा ,जैसे जैसे वह फाड़ता जा रहा था उसमें लिखी हुई उस डर की हर एक इबारत मिटती जा रही थी जो  उसने शब्दों में  तब उतारनी शुरू की थी जब वह बारह साल का बच्चा था और चाचा ने पहली बार शिकार बनाया था और उस दिन के बाद पन्ने बढ़ते गये थे।
अपने कुछ आभासी मित्रों की सहायता से आज वह उस दलदल से बाहर आ चुका था।
— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

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