लट्टू दीवाने
तब सचमुच में
‘मेला’ होता था,
अब तो वह सिर्फ
ठेलमठेला है!
तब मुझे ‘लट्टू’
बहुत पसंद होता था,
यही कारण
अबतक
मुझपर
कोई लड़कियाँ
‘लट्टू’ नहीं हुई हैं!
‘गेंद’ भी पसंद था,
लेकिन खिलाड़ी
नहीं बन सका!
छोटी फटफटिया
पसंद था,
लेकिन इस पटाखा को
ईंट से पीटकर भी
फोड़ डालते थे!
अफसोस है,
जो चीज वहाँ
नहीं मिलती थी,
वही चीज लेकर मैं
जीवनभर के लिए
बैठ गया हूँ
यानी कलमकार हूँ,
भाई !
मेले में
पंडाल देखकर
लगता है,
इनपर हुई खर्च पर
तो एक गरीब बस्ती की
भूख मिट सकती थी !