लघुकथा

पोस्टमार्टम

बड़ी विचित्र शवयात्रा थी। अरथी हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख ईसाई चारों के काँधे पर थी। पीछे-पीछे चलनेवाले बौद्ध, जैन और धर्म संप्रदाय के लोग रह-रहकर कंधा देते चलते थे। तभी किसी को खोजती हुई पुलिस की लॉरी ने शव को उतारकर बीच चौराहे पर उसका पोस्टमार्टम करने का आदेश दिया- रोको। किसकी लाश है? चौराहे पर ही पोस्टमार्टम होने लगा। लाश काफी पुरानी थी शायद इसलिए बदबू भी असहनीय थी लेकिन पोस्टमार्टम करनेवाले जो कि डॉक्टर नहीं थे, बड़ी रुचि लेकर व्यस्त थे। आँखें निकाली गयीं तो उसमें एक घर का चित्र दिखाई दिया। अतड़ियाँ और आमाशय दोनों खाली थे शायद सालों से खाया ही नहीं था। ज़बान पर छाले थे जो ज़बरदस्ती किसी विदेशी भाषा से उच्चारण के कारण उभरे थे। दिमाग में कई डिग्रियाँ छपी थीं। हाथ एकदम साफ थे जैसे आजतक कोई काम ही नहीं किया। पैरों की एड़ियाँ घिस चुकी थीं और अंगूठों पर गहरे ज़ख़्म पर जमा मवाद बता रहा था कि बहुत ठोकरें खायी है। रीढ़ में चटखी हुई थी। शायद बलपूर्वक झुकाने की कोशिश की गयी पर झुकाया न जा सका था। पीठ पर निशान था। किसी ने गले मिलते-मिलते छुरा घुसाया था। गर्दन ऐसी ऐंठी कि जलने के बाद बल खायी हुई रस्सी। छोटा सा हृदय अनेक टुकड़ों में बँटा था – वात्सल्य, प्रेम, त्याग, परोपकार, साहस, सहानुभूति के। सारी कोशिशों के बाद भी मृत्यु का कारण समझ नहीं आ रहा था। न उसकी शिनाख़्त हो पा रही थी। ये हत्या थी या आत्महत्या? तभी एक कागज़ का पूर्जा कहीं से उड़ कर आया जिस पर लिखा था- इंसान लापता!

शरद सुनेरी
मो-9421803149