कविता

मित्र और मित्रता

मित्रता का अपना अपना
उसूल होता है,
मित्रता के अनुभव भी
बहुत खट्टे मीठे होते हैं।
सच तो यह है कि मित्र
बनाये नहीं जाते
बन जाते हैं,
हम चाहें या न चाहें
बस दिल में उतर जाता है।
न जाति धर्म मजहब
न ही स्त्री या पुरुष का भाव
बस वो अपना सिर्फ अपना ही
नजर आता है।
उसका हर कदम,हर भाव
उसकी सोच,उसकी चिंता
अपनेपन का बोध कराता है।
उसके हर विचार
रूठना, मनाना, डाँटना, समझाना,
और तो और
अधिकार समझना
गुस्से में लाल तक हो जाना भी,
तो कभी कभी आँसू बहाना
हमारे दुर्व्यवहार को भी
शिव बन पी जाना,
माँ ,बाप, बहन, भाई,
मित्र जैसे रिश्ते निभाना,
हमारी खुशी के लिए
सब कुछ सहकर भी
हँसकर टाल जाना,
पूर्व जन्म के रिश्तों का
अहसास दे जाना
सच्चे मित्र की पहचान है।
उम्र का अंतर
मायने नहीं रखता
क्योंकि हमें खुद बखुद
उसके कदमों में झुक जाने का
मन भी करता,
उसके प्रति श्रद्धा बढ़ती जाती
उसमें ही अपना सबसे बड़ा
शुभचिंतक, भाई, बहन के रुप में
मित्र मित्र नहीं भगवान नजर आता।
परंतु अफसोस तब होता है
जब मित्र के रूप में हमें
शैतान मिल जाता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921