लघुकथा

संयुक्त परिवार

फोन पर शिकायती लहजे में उमा बोली – “माँ तुम्हारी सलाह पर संयुक्त परिवार से अलग होकर मैं सुखी नही बल्कि ज्यादा ही परेशान हो गई थी । कभी आटा खत्म] तो कभी सब्जी मसाले के अभाव में आये दिन परेशान होकर वापस ही अपनी सासू माँ के पास आ गई हूँ ।”
मन्दिर से आकर घर में प्रवेश करते हुए उमा की बातें सुनकर सासू माँ ने कहा- “अच्छा किया जो वापस आ गई” तुझे परेशान देखकर मैंने ही बेटे राकेश को समझाते हुए एक माह के लिए जरूरी आटा, दाल, मसालों के साथ तेरा तथा बेटे का सामान बाँधकर किराये के मकान में खुशी-खुशी विदा किया था, ताकि संयुक्त परिवार में सबके सामूहिक सहयोग से काम करने और अकेले रहने में अंतर को महसूस कर सके । सुबह का भुला शाम को लौट आये तो भुला नही कहाता बहूँ।”
वे आगे बोली – “तेरे दादा स्वसुर कहा करते थे कि हमारे देश की सनातन संस्कृति की जड़ें संयुक्त परिवारों में है, जहाँ रहकर ही सबको आपसी स्नेह और सहयोग की समझ आती है ।”
उमा एकाकी और संयुक्त परिवार में फर्क समझ चुकी थी ।
— लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

जयपुर में 19 -11-1945 जन्म, एम् कॉम, DCWA, कंपनी सचिव (inter) तक शिक्षा अग्रगामी (मासिक),का सह-सम्पादक (1975 से 1978), निराला समाज (त्रैमासिक) 1978 से 1990 तक बाबूजी का भारत मित्र, नव्या, अखंड भारत(त्रैमासिक), साहित्य रागिनी, राजस्थान पत्रिका (दैनिक) आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, ओपन बुक्स ऑन लाइन, कविता लोक, आदि वेब मंचों द्वारा सामानित साहत्य - दोहे, कुण्डलिया छंद, गीत, कविताए, कहानिया और लघु कथाओं का अनवरत लेखन email- lpladiwala@gmail.com पता - कृष्णा साकेत, 165, गंगोत्री नगर, गोपालपूरा, टोंक रोड, जयपुर -302018 (राजस्थान)