धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

होली एक विशेष पर्व 

रंगो का पर्व होली विशेषांक में विशेष है। यह  हुडदंगों के साथ तथा गाकर बजाकर चिढाकर खेलते है। वही होरियार है अर्थात (होरि यार) यारो संग होरी ।
शरद की समाप्ति के साथ ही बसंत का आगमन और फिर होली की हुड़दंग जहाँ रंग और गुलाल प्रकृति के साथ मन भी रंगीन हो जाता है।हमारे देश का मौसम चक्र ही कुछ ऐसा है जहाँ हर मौसम की अपनी विशेषता है ।बसंत में होली उनमें खास है।बसंत की हवा में वो मीठा एहसास है पुष्प पराग उनमें खास हैं।मनुष्य भी इससे अछूता नही इसलिए बसंत में सभी वेताव हैं ।यह मधुमास का मौसम अनगिनत वर्णन और सौंदर्य को लेकर आती है जहाँ कोयल की बोली आम का बगीचा सुन्दर फूल हरे भरे खेत और मस्त पवन का झोंका मानो एक पल में लेकर उड़ना चाह रही हो।खेतो में सरसों के फूल गेहूँ की फूटती बाली चने के दानो पर चिड़िया न्यारी प्यारी मानो पूरे वर्ष का सामान इकठ्ठा कर रही हो।क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी लग जाते इस रंग के मेले में और प्रकृति के इस अदभूत नजारो का लुफ्त लेते है कोई गाकर कोई बजाकर कोई सजकर कोई नाचकर वेहद अदभूत और अविस्मरणीय बन जाते हैं।
होली एक प्रमुख त्योहार है।यह पौराणिक कथाओं पर आधारित भी है । हिरण्य कश्यप और भक्त प्रहलाद से जुडी यह पर्व भक्त प्रहलाद की जीत को भी याद कराता है ।भगवान और भक्त के विश्वास से जुडी इस कहानी में होलिका जो भक्त प्रहलाद के साथ हिरण्य कश्यप के द्वारा जलायी जाती है और भगवान उसे बचा लेते है ।उसी को याद कर आज भी सभी चौराहो पर होलिका दहन की जाती है जिसमें बुराइयाँ जलती है ऐसी आस्था आज भी बरकरार है।
होली हमारी संस्कृति को जोड़ने वाला पर्व है इस दिन बच्चे बूढे सभी समान हो जाते है और सभी एक दूसरे को रंग गूलाल लगाते।गाँव की होली खास होती है जोगीरा की टोली निकलती है जो गाते बजाते रंग लगाते मस्त होकर खेली जाती है।लेकिन शहर की होली में उतनी अपनेपन का अभाव दिखता है मिलावट रंग और शराब का प्रचलन ने कुछ हद तक जरूर फिका किया है।
होली के पारम्परिक तरीके और सादगी को व्यवसायिक बनाया गया हमारी खुद की रंग और गुलाल की जगह मिलावट युक्त किया गया जो अब उपयोग करने योग्य नही रहा है।खान पान में भी मिलावट का दौर बदस्तूर जारी है जिनसे बचना ही ज्यादा फायदेमंद है।
किताबी ज्ञान के चक्कर में आज के युवा वर्ग इस तरह के माहौल को पसंद भी नही करते क्योंकि बहुत से युवाओ ने गाँवो की संस्कृति और होली से जुडी कहानियों के बारे में जानते भी नही क्योंकि उन्हें अपनी संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी या समय देने का मौका नही मिला।कई ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे।पहले का दौर था जब लोग दादा- दादी नाना- नानी गाँव के बडे लोगो के बीच बैठकर उनके संपर्क में रहकर हर तरह की कहानीयों व्यवहारिकताओं और उच्च विचारों को सीखते थे।आज वो दौर नही है टीवी और मोवाइल से हम अपनी संस्कृति को कैसे संभालेंगे और होरियार को कैसे जीवित रखेंगे यह सोचनीय है।
अतः आज की युवा पीढी को आने वाले समय के लिए और अपनी संस्कृति को समझने के लिए अपने लिए कुछ समय इन सभी सांस्कृतिक पर्व पर भी देना चाहिए जिनसे उनकी आने वाली पीढी भी लुफ्त उठाती रहे और संस्कृति और भी मजबूत बना रहे।
— आशुतोष झा

आशुतोष झा

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