गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

किसी को अपना बना के रखना मज़ाक है क्या
ज़माने भर से छुपा के रखना मज़ाक है क्या
मुहब्बतों के दियों को अपने हर एक लम्हा
हवा की ज़द से बचा के रखना मज़ाक है क्या
किसी की बख्शी ग़मों की दौलत बसद मुहब्बत
जिगर में अपने सजा के रखना मज़ाक है क्या
जो अश्क़ बनकर सदफ़ से बाहर गिरे थे मोती
उन्हें वहीं फिर उठा के रखना मज़ाक़ है क्या।
रिफ़ाक़तों का सुराग़  बनकर चराग़ बनकर
ख़िलाफ़ ख़ुद को हवा के रखना मज़ाक़ है क्या
ग़लत बयानों को उसके सुनकर उसी को चुनकर
ज़बां पे ताला लगा के रखना मज़ाक़ है क्या।
‘शिखा” किसी दिन बनेगी शोला ये दिल ने बोला
किसी को हद से दबा के रखना मज़ाक़ है क्या।
— दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर

दीपशिखा सागर प्रज्ञापुरम संचार कॉलोनी छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश)