सामाजिक

सर्वजन हितार्थ जन सरोकार

कब्रिस्तानों की घेराबंदी होना काफी महत्वपूर्ण। पता नहीं, बिहार सरकार के पास सिर्फ यह योजना है या इनपर कोई क़ानून भी है, किन्तु मैं जब से देख रहा हूँ, कब्रगाहों या कब्रिस्तानों को चारों तरफ से खुला ही देखा हूँ । इस्लाम सहित कई धर्मावलंबी अपने परिजनों के शवों को निजी जमीन पर भी दफनाते रहे हैं । परंतु प्रायश: सार्वजनिक कब्रिस्तान-स्थल की जमीन सरकारी है, किन्तु कब्रगाहों की घेराबंदी की चर्चा यहाँ-वहाँ महज़ होती रही है, किन्तु हकीकत में ऐसा 10 फीसदी ही हुआ होगा ! इन कब्रों की घेराबंदी नहीं होने से शवों के असुरक्षित रहने की संभावना बलवती हो जाती है । खुले में कुत्ते, सियार आदि द्वारा शवों को क्षत-विक्षत किये जाने की संभावना बढ़ जाती है । रास्ते में ऐसे कब्रिस्तान पड़ने से लोगों में अज़ीब डर-सा बना रहता है, इसलिए उनका घेराबंदी आवश्यक है । इतना ही नहीं, कोई भी कब्रिस्तान ऊँचे स्थल में होने चाहिए, ताकि बाढ़ आदि में जल-जमाव से शवों के सड़ाँध-दुर्गंध की समस्या से निज़ात मिल सके । इसके साथ ही कब्रगाहों में पेड़-पौधे भी निश्चित दूरी लिए लगने चाहिए, ताकि कब्र के मिट्टियों का अनावश्यक क्षरण न हो !
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अख़बारी कागज़ पर नाश्ता खाने से होते हैं रोग। चौक-चौराहों पर नाश्ते की दुकान में नाश्ता छपा हुआ व अखबारी कागज़ पर दिया जाता है, जिनकी स्याही से बवासीर, जोंडिस, दश्त, कृमि इत्यादि रोग होते हैं।  इसपर रोक संबंधी सुझाव मैंने भारत सरकार को भेजा था।
गत साल भारत सरकार के माननीय स्वास्थ्य मंत्री श्री जगत प्रकाश नड्ढा ने प्रेसवार्त्ता कर कहा–“दुकानदारों को खाद्य-सामग्रियाँ छपे अथवा अखबारी कागजों पर नहीं परोसने चाहिए । इसपर सख़्ती से पालन के लिए नियमन बनाये जाएंगे, क्योंकि अखबारों में प्रिंटेड स्याही में कई खतरनाक रसायन मिले होते हैं, जिससे खाद्य-उपभोक्ता को कई खतरनाक बीमारी हो सकती हैं ।” इसलिए भोजन हेतु सखुआ पत्ता आदि को फिर से प्रचलन में लाया जाय, क्योंकि ऐसे पत्ते पर खाने से किसीप्रकार की बीमारी नहीं होने के वैज्ञानिक कारण हैं । फाइबर थाली में खाद्य पदार्थ खाने से काफी नुकसान होता है ! सरकार को इसपर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।
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अधिवक्ताओं की भी ‘फीस’ हो निर्धारित। जनसाधारण से लेकर वीआईपी तक एसडीओ कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की आश में पहुँचते हैं, जहाँ रसूखदार लोग तो मेरिटवाले-वकील को उच्च फीस चुकताकर उसे अपने पैरवी के लिए नियुक्त कर लेते हैं । परंतु कानूनी-जानकारी नहीं होने के कारण साधारण लोग शीघ्र न्याय पाने की लालसा में ऐसे वकील के फीस तभी भर पाते हैं, जब जमीन या घर या औरतों के गहने गिरवी रखते हैं या बेचते हैं । इसपर भी केस जीत ही जाएंगे, ऐसी कोई गारंटी नहीं रहती ! हालाँकि गरीब-मुवक्किल के लिए संविधान ने उनके लिए मुफ़्त वकील की व्यवस्था किया है, किन्तु ऐसे पैरवीकार-अधिवक्ता की कानूनी जानकारी अल्प ही रहती है । मैंने विविध कोर्टों के वकीलों के फीस-निर्धारण को लेकर ‘बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया’ को पत्र लिखा, किन्तु फाइनल-जवाब अबतक पेंडिंग है । भारत के विधि मंत्री रहे “राम जेठमलानी” भी एक बहस के लिए ₹5 लाख से ऊपर लेते थे, एक दूजे की बात करना ही बेमानी है!

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.