कविता

अच्छा लगता

चीची करती
दाना पाने की आशा में
रोज सवेरे गौरैया
आती हैं घर में
जैसे ही खाने को हम
उनको कुछ देते
चोंच में भर कर उड़ जाती
वह दूर गगन में

कभी कभी तो नींद से भी
वह हमें जगाती
मानो हमे कर्तव्य बोध
का पाठ पढ़ाती
पूछ रही हों जैसे हमसे
क्यों सोए हो
भोर हो गयी अभी तलक
क्यों नही जगे हो

मेरा दाना – पानी
अब तक मिला न मुझको
मेरे भी बच्चे हैं
उनकी फिक्र न तुमको
देर हो गई पहले तुम
मेरी सुधि ले लो
मेरे हिस्से का दाना
तुम जल्दी दे दो

चिड़ियों का ये आना जाना
अच्छा लगता
पंख फैलाना और उड़ जाना
अच्छा लगता
रोज सवेरे हमें जगाना
अच्छा लगता
दाना देकर कुछ कुछ पाना
अच्छा लगता

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई