हास्य व्यंग्य

कहानी सब्जीपुर की ( भाग -2 )

साथियों नमस्कार ! इससे पूर्व की कड़ी में आप सभी ने पढ़ा कि किस तरह आलूचन्द और कद्दू कुमारी की सगाई के मौके पर अचानक भिंडी कुमारी की वजह से अच्छा खासा बवाल हो गया और उनकी सगाई का मामला खटाई में पड़ गया। इस सारे फसाद की जड़ पंडित लौकिचन्द को ही माना गया और भिंडी कुमारी तो विवाद के केंद्र में थी ही।

कहते हैं तब से ही सब्जीपुर में सत्ता के दो केंद्र बन गए । एक खेमा जो आलूचन्द का समर्थक था जिसमें परवल लाल, मटरू चंद, गोभीदेवी, बैंगनलाल, टमाटर लाल सहित कई लोकप्रिय सब्जियाँ शामिल हैं तो वहीं दूसरे खेमे में करेला , नेनुआ ,तुरिया ,पालक सहित दर्जनों सब्जियाँ शामिल हैं।लेकिन दूसरे खेमे की आपसी सिर फुटव्वल की वजह से इनकी संख्या अधिक होने के बावजूद इन्हें सब्जीपुर की सत्ता कभी हासिल नहीं हुई और आलूचन्द बेखौफ अब तक सब्जीपुर का राजा बना हुआ है। गौरतलब है कि कद्दू कुमारी, लौकिचन्द व भिंडी कुमारी इन दोनों खेमों में कहीं नजर नहीं आतीं ! यह पूरा वाकया जानने के लिए पढ़िए कहानी सब्जीपुर की का पहला भाग इस लिंक पर क्लिक करके https://jayvijay.co/2017/07/11/%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%9c%e0%a5%80%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%80/
अब आगे पढ़िए …🙏
 आलूचन्द अब धीरे धीरे भिंडी कुमारी द्वारा किए गए अपमान को भूलने का प्रयास करते हुए मसालेदार सब्जियों के साथ ही कुछ हरी सब्जियों के साथ भी मेलजोल बढ़ा कर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने में लगा हुआ था।
  पालक, सोया, मेथी जैसी हरी पत्तेदार सब्जियाँ भी आलूचंद का विरोध करना छोड़ कर उसकी मित्र मंडली में शामिल हो गई।
आलूचंद के मित्र मंडली में शामिल होते ही ये हरी सब्जियाँ  गर्व से इतराने लगीं और विरोधी खेमा अपने आप को बेहद कमजोर समझने लगा।
इस खेमे की कुछ और सब्जियाँ भी आलूचंद के विनम्र व मिलनसार स्वभाव की यदाकदा तारीफ कर देतीं।
  आलूचंद का कोई विरोधी न हो तब तो राज्य में लोकतंत्र ही कायम नहीं रहेगा इसी सोच के साथ विरोधी खेमे के करेला, नेनुआ ,तुरिया सहित कई प्रमुख सब्जियों ने इस पर चिंतन मनन के लिए सभी सहयोगी साथियों की एक बैठक बुलाई।
अब तक गायब रहनेवाले लौकिचन्द को भी विशेष निमंत्रण भेजा गया इस चिंतन शिविर में शामिल होने के लिए। मंशा थी उनके लंबे राजनीतिक समझबूझ व अनुभव का लाभ उठाने की।
तय समय पर चिंतन शिविर का कार्यक्रम शुरू हुआ। लौकिचन्द की वरीयता का ध्यान रखते हुए सर्वसम्मति से उन्हें इस चिंतन शिविर का अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
इस शिविर में शामिल सभी वक्ताओं ने एक स्वर में एक ही बात की चिंता व्यक्त की जिसका लब्बोलुआब यही था कि असीमित शक्तियाँ प्राप्त शासक आलूचंद कहीं मद में चूर निरंकुश तानाशाह न बन जाए जैसा कि लोकतंत्र में एकतरफा निर्विरोध चयनित शासक अक्सर करते हैं।
सभी वक्ताओं के वक्तव्य के बाद अब बारी आई मनोनीत अध्यक्ष लौकिचन्द के अध्यक्षीय भाषण की।
लौकिचन्द के खड़ा होते ही मौजूद सदस्यों ने करतल ध्वनि से उनका अभिनंदन किया और इस सम्मान से गदगद लौकिचन्द ने अपनी लंबी गर्दन और ऊँची करते हुए बोलना शुरू किया, ” सभा में उपस्थित सब्जीपुर के सभी प्रमुख सब्जियों ! सबसे पहले तो मैं आप सभी का अभिनंदन व स्वागत करना चाहूँगा तथा साथ ही आप सभी का धन्यवाद भी प्रकट करना चाहूँगा कि आप सभी ने रसोई की परवाह न करते हुए हमारे राज्य पर आसन्न संकट का सामना किस तरह किया जाए इस पर अपने विचार रखने के लिए आप सभी बड़ी संख्या में इस शिविर में आए और आपने अपना विचार रखा !  आप सभी के वक्तव्यों से एक ही बात सर्वसम्मति से निकल कर आई कि आप सभी सब्जीपुर की मौजूदा राजनीति से दुःखी व भविष्य को लेकर आशंकित भी हैं। आप सभी की आशंका निर्मूल नहीं है। मेरा भी मानना यही है कि विरोधी पक्ष की कमजोरी सत्ता पक्ष को निरंकुश बना ही देता है और यह मैं अपने दीर्घ राजनीतिक अनुभव के दम पर दावे के साथ कह सकता हूँ।”
मनोनीत अध्यक्ष की अपने विचारों से सहमति पाकर कुछ सब्जियों ने अति उत्साह में आकर हर्षध्वनि से लौकिचन्द के जयकारे लगाना शुरू कर दिया। कुछ पल रुककर उन्हें शांत करने के बाद लौकिचन्द ने आगे कहना शुरू किया, ” मैं समझता हूँ यहाँ उपस्थित हम सभी इस बात से सहमत होंगे लेकिन सवाल यह उठता है कि हम ऐसा क्या करें कि भविष्य में हम आलूचंद को निरंकुश होने से रोक सकें और सभी सब्जियों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा कर सकें ?
हम संख्याबल में भले अधिक हैं लेकिन हमारी आपसी फूट हमे सदैव कमजोर बनाए रखती है और जनसमर्थन के मामले में भी हम उनसे काफी पीछे हैं सो उनसे सीधे मुकाबले का तो हम सोच भी नहीं सकते ! ” कहते हुए सोचपूर्ण मुद्रा में लौकिचन्द कुछ पल के लिए खामोश हुआ।
सभा में नीरव स्तब्धता छाई हुई थी। सभी शांत चित्त होकर बड़े ध्यान से लौकिचन्द की बातों को सुन रहे थे और बीच बीच में करतल ध्वनि से उनकी बातों का समर्थन भी कर रहे रहे। कुछ पल की खामोशी के बाद सभा में सभी को नजरों से टटोलते हुए लौकिचन्द ने रहस्य भरे स्वर में कहना शुरू किया, ” परिस्थितियों को देखते हुए मेरे मन में एक विचार ने जन्म लिया है। मुझे लगता है अगर हम मेरे मन मुताबिक करने में सफल हो गए तो निश्चित ही हम आलूचंद पर पूरी तरह काबू पाने में सफल हो जाएंगे और उसके निरंकुश होने की एक प्रतिशत भी संभावना नहीं रहेगी। अगर आप सब इजाजत दें तो अपने विचार प्रस्तुत … ?”
लौकिचन्द की बात पूरी होने से पहले ही सबने एक स्वर में कहा, ” आगे कहिए ! आगे कहिए !”
श्रोताओं की भीड़ में से जगह बनाती हुई करेला देवी आगे बढ़ी और बोली, “हमने सब कुछ सोचसमझकर ही आपको अपना नेता माना है और हमारा विश्वास है कि आप जो भी करेंगे हमारी भलाई के लिए ही होगा सो बिना किसी संकोच के आप कह दीजिये कि आप क्या करना चाहते हैं और हम सब आपका सहयोग कैसे कर सकते हैं।”
कड़वी करेला देवी की मीठी बातों से उत्साहित लौकिचन्द ने आगे कहना शुरू किया, ” साथियों ! जब दुश्मन काफी शक्तिशाली हो तो दुश्मनी भूलकर उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए यह हमें नीतिशास्त्र में पढ़ाया गया है। “
तभी भीड़ में से किसी ने पुरजोर स्वर में पूछा , ” लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि अपने मद में चूर शक्तिमान आलूचंद हमारी मित्रता स्वीकार कर लेगा ?”
मुस्कुराते हुए लौकिचन्द बोला, ” अच्छा सवाल किया है तुमने। मैं आलूचंद के मंत्रिमंडल में काम कर चुका हूँ और इस नाते मुझे उसकी शक्ति और कमजोरी दोनों ही पता हैं। आप सब भी जानते होंगे कुछ वर्ष पहले हुए उस हादसे को जो आलूचंद और कद्दू कुमारी की सगाई में हुआ था। उस हादसे के बाद से ही आलूचंद हम सबके साथ बेरुखी से पेश आता है और निरंतर निरंकुशता की तरफ बढ़ रहा है। यदि हम अपनी बिरादरी की किसी कन्या का विवाह उससे करके उससे रिश्तेदारी कर लें तो हम सभी सब्जियों को उसके भय से छुटकारा मिल जाएगा ! हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारी कन्या जो उससे विवाह करेगी उस पर काबू पाने में पूरी तरह सफल रहेगी। “
सभा में खुसरफुसर शुरू हो गई। तभी एक स्वर गूँजा, ” बात तो आपने सही कही महाशय लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बाँधे कौन ? अर्थात कौन ऐसा है हममें से जो अपनी फूल सी कन्या उस बेडौल बदरंग आलूचंद को सौंपना चाहेगा ?”
व्यासपीठ पर खड़ा लौकिचन्द कुछ देर खामोशी से सभा में उपस्थित सभी लोगों के चेहरों को पढ़ने की कोशिश करता रहा और कुछ कहना ही चाहता था कि तभी भीड़ में एक किनारे खड़ी अपने हरे हरे पत्तों को फड़फड़ाती प्याजो रानी आगे बढ़ी और व्यासपीठ के सामने झुककर लौकिचन्द का अभिवादन करती हुई बोली, ” यदि आप इजाजत दें और मुझे इस योग्य समझें तो अपने समाज के सभी सब्जियों के हितों को ध्यान में रखते हुए मैं आलूचंद से विवाह करने के लिए तैयार हूँ। यदि मैं अपने समाज के किसी काम आ सकी तो यह मेरा सौभाग्य होगा।  अपने समाज के हित के लिए मैं अपने प्राणों की बलि भी दे सकती हूँ। “
सबने प्याजो रानी के जज्बे की भूरी भूरी प्रशंसा की। प्याजो रानी की सहमति के बाद आलूचंद से उनके रिश्ते की बात चलाने की जिम्मेदारी एक बार फिर लौकिचन्द ने उठाई और एक दिन वह भी आया जब आलूचंद और प्याजो रानी की धूमधाम से शादी हो गई।
एक कुशल गृहिणी व अर्धांगिनी की तरह प्याजो रानी आलूचंद के साथ हर कदम पर डटी रही वहीं एक बेटी के रूप में वह अपने मायके की सभी हरी सब्जियों का भी दिल जीतने में कामयाब रही। आलूचंद की सही मायने में अर्धांगिनी दिखने के लिए उसने स्वयं में भी काफी बदलाव किए व अपने सुंदर हरे पत्तों का परित्याग कर वह भी आलूचंद जैसी ही गोलमटोल दिखने लगी।  आलूचंद व प्याजोरानी की जोड़ी को देखकर बरबस ही लोगों के मुँह से निकल पड़ता ‘ वाह ! क्या जोड़ी है। लगता है जैसे दोनों एक दूसरे के लिए ही बनाए गए हों !’
प्याजोरानी की कर्मठता व मायके व ससुराल पक्ष के सभी लोगों के प्रति समान आदरभाव व स्नेह ने उसे दोनों पक्षों में लोकप्रिय बना दिया। एक बेटी के रूप में वह जहाँ हरी सब्जियों के साथ नजर आती ,तो वहीं गोलमटोल प्याजो रानी आलूचंद के साथ उसके ही रंग में रंगी पूर्ण समर्पित गृहिणी की तरह सभी मसालेदार सब्जियों के साथ भी खड़ी नजर आती।  कहते हैं एक बेटी दो घरों में उजाला करती है व दो घरों में आपसी तालमेल व सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक सेतु का कार्य करती है। यहाँ भी प्याजो रानी ने अपना यह दायित्व बखूबी निभाया व सब्जीपुर में दोनों पक्षों के बीच आपसी समझ व तालमेल तथा सामंजस्य स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
अपने व्यवहार कुशलता से वह रसोई में मौजूद सभी सब्जियों से अधिक लोकप्रिय होने का तमगा हासिल कर चुकी है। इतनी अधिक लोकप्रिय कि उसकी कमी की वजह से सरकारें भी बदली जा चुकी है।
आलूचंद से अधिक लोकप्रियता हासिल करके भी प्याजो रानी आज भी उतनी ही विनम्र व लोकप्रिय है कि उसे काटते हुए हर कोई अनायास ही रो पड़ता है।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

One thought on “कहानी सब्जीपुर की ( भाग -2 )

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    इसकी पहली कड़ी कहाँ है?

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