गीतिका/ग़ज़ल

जीने का करो जतन 

काँटों की तक़दीर में, नहीं होती कोई चुभन
दर्द है फूलों के हिस्से, मगर नहीं देते जलन।
शमा तो जलती है हर रात, ग़ैरों के लिए
ख़ुद के लिए जीना, बस इंसानों का है चलन।
तमाम उम्र जो बोते रहे, पाई-पाई की फ़सल
बारहा मिलता नहीं, वक़्त-ए-आख़िर उनको कफ़न।
उसने कहा कि धर्म ने दे दिया, ये अधिकार
सिर ऊँचा करके, अधीनों का करते रहे दमन।
जूनून कैसा छा रहा, हर तरफ़ है क़त्ल-ए-आम
नहीं दिखता अब ज़रा-सा भी, दुनिया में अमन।
जीने का भ्रम पाले, ज़िन्दगी से दूर हुआ हर इंसान
‘शब’ कहती ये अंतिम जीवन, जीने का करो जतन।
— जेन्नी शबनम