कविता

पीर

पीड़ा की है पीर उठी
 कैसे संयोग श्रृंगार करूँ,
 अंतस जलता, बाह्य तप्त है
 स्नेह निमंत्रण पार जलूँ।
 किंचित विचलित नहीं हुई
 मैं परिवेश परवाने में,
 चाह,आह से ज्यादा है
क्यों अभिनंदन स्वीकार करूँ ।
 पलकें स्थित हैं अपलक
 जिस पंथ कंत तुम छोड़ गए,
 फिर के, फिर से, फेरा लो
 मैं वहीं खड़ी हर बार मिलूँ।
 गए दिवस भी मास, बरस
 क्षण स्नेह स्मरण में सोती हूँ,
 जाग भाग प्रिय देव मिलें
 इसलिए समर्पण हार करूँ।
 सैरंध्री कटु रन्ध्र करे
हृदयेश ठहर जाने से तेरे
करो गति पुन आन मिलो
रित हृदय श्वास संचार करूँ।
— महिमा तिवारी

महिमा तिवारी

नवोदित गीतकार कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, प्रा0वि0- पोखर भिंडा नवीन, वि0ख0-रामपुर कारखाना, देवरिया,उ0प्र0