कविता

परिधान

हमारे व्यक्तित्व
हमारी संस्कृति सभ्यता की
पहचान है परिधान।
आधुनिकता की आड़़ में
उल जूलूल और बदन उघाड़ू
परिधान उजागर कर रहे
हमारी मानसिकता का निशान।
कार्टून बनने और उधारी संस्कृति से
हम क्या सिद्ध कर रहे हैं,
लगता है जैसे हम अपनी ही
हंसी का पात्र बन रहे हैं।
कुछ हमारे बुजुर्ग भी अब
पाश्चात्य संस्कृति का जैसे
शिकार बन रहे हैं,
अपनी बहन,बेटियों, बहुओं को
जैसे नाटक मंडली का
पात्र बना रहे हैं
अधनंगे बदन देख
कितना खुश हो रहे हैं।

अरे ! कम से कम
अपनी परंपरा को तो
संभाल कर रखो,
शालीन परिधान पहनो, पहनाओ
अपनी संस्कृति, सभ्यता को
न नंगा नाच नचाओ।
सिर्फ कहने भर से ही
सभ्य, सुसंस्कृति नहीं कहलाओगे
कम से कम परिधानों में ही सही
भारतीय संस्कृति, सभ्यता का
आभास तो कराओ।
माना की आपको आजादी है
पर ऐसी आजादी का फायदा
भला क्या है?
जो आपके परिधानों के कारण
आपको, समाज को और राष्ट्र को
बेशर्मी और असभ्यता का
मुफ्त में तमगा दिलाए।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921