कविता

पितृ दिवस

ऋणी हूं मैं पिता का
जो मुझे इस संसार में लाया
ऋणी हूं माता का
जो रही सहयोगी उनकी
दोनों के योग/ युज से
धरा पर उत्पत्ति हुई मेरी
पिता ने मुझको
अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया
कांधे बिठाकर
मेला दशहरा दिखाया
खुद घोड़ा बन
घोड़े की सवारी कराया
मेरी राह के कांटों
को बुहारा
राह को मेरे
निष्कंटक बनाया
चलना कैसे है जमाने में
बार बार यह पाठ पढ़ाया
कहा चलना
कहा रुकना है
बड़े प्यार से समझाया
अनुशासन में रहना सिखाया
लाड़ प्यार ही नहीं
जरूरत पर थपियाया
ठोंक पीट कर
एक सुंदर
सांचे में ढाला गया
जो कुछ हूं मैं आज
उनकी वजह से ही हूं
ऋणी हूं उस पिता का
जिसका मैं पुत्र हूं

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020