कविता

आज फिर तुम्हारी याद आई

आज फिर तुम्हारी याद आई
गुजरे जमाने की सारी यादें साथ लाई
कई दशक बीत गये
मगर लगता है कल की ही बात है
अब तो बस यादों का ही साथ है।
छोड़ो अब उस हिसाब को
किसका था दोष या कुसुर
कुछ तेरा था , कुछ मेरा था
शायद कुछ हमदोनों का था जरूर।
किस्मत मे न लिखा था
हमदौनों का मिलने का मेल
सब नसीब का था ये खेल
मिलके भी हम न मिल सके
और अपनी चाहत को मिला जेल।
अपनी उम्र ढल गई है जरूर
पर देखो अपनी यादों का सुरूर
कितनी उफान मारती है इसकी लहरें
काश , हमदोनों थोड़ी देर साथ रूक जाते
पर न हम ठहरे और न तुम ठहरे।
– मृदुल