कविता

नारी गरिमा

तुम मुझमें हो मैं तुझमें हूँ
तुम जगत का गौरव हो
तो मैं सृष्टि की गरिमा हूँ

तुम हो सूरज, रश्मि हूँ मैं
यदि चाँद हो तुम, चाँदनी हूँ मैं
हो सागर तुम, गहराई मैं हूँ
जो पर्वत हो तुम, ऊँचाई हूँ मैं
तुम मुझमें हो मैं तुझमें हूँ…

पुष्पों में बन सुगन्ध धरा सुवासित करती हूँ
पक्षी में मैं भर उड़ान नील गगन छू जाती हूँ
लम्बी डगर चलते पथिक की मैं मंजिल बन जाती हूँ
दीपक की मैं ज्योति बन संसार का तमस मिटाती हूँ
तुम मुझमें हो मैं तुझमें हूँ….

पुजारी की मैं उपासना हूँ, चित्रकार की कल्पना
कवियों की कविता हूँ मैं, भक्तों की मैं आस्था
संगीत के मीठे स्वरों की, कर्णप्रिय रागिनी हूँ मैं
शिल्पकार के परिश्रम की अद्वितीय रचना मैं हूँ
तुम मुझमें हो मैं तुझमें हूँ…

दुर्गा में मैं वीरता, सरस्वती में ज्ञान हूँ
काली में मैं रौद्ररूप, लक्ष्मी मैं धनधान्य हूँ
बेटी भगिनी माँ रूप में, स्नेह वात्सल्य अनुराग हूँ
जीवन पथ पर बन सहचरी, आशा और विश्वास हूँ
तुम मुझमें हो मैं तुझमें हूँ…

— सुधा अग्रवाल

सुधा अग्रवाल

गृहिणी, पलावा, मुम्बई