सामाजिक

है ये कैसा सफ़र

“ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं, है ये कैसी ड़गर चलते है सब मगर कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं” इस गाने के बोल को समझे तो बहुत कुछ समझाता है हम इंसानों को।
सफ़र सिर्फ़ ट्रेन या बस में एक जगह से दूसरी जगह जाने का नाम नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक उम्र काटकर पहुँचना भी एक सफ़र है। स्वाच्छोश्वास का आवागमन मुसाफ़िर जैसा ही है एक श्वास आती है, एक विदा लेती है। इस अविरत बहती क्रिया के सफ़र में देखने लायक और अनुभव करने लायक कई पड़ाव आते है। चुनौतियां, संघर्ष, सुख-दु:ख और सबसे बड़ा पड़ाव रिश्तों की चौसर।
भूलभूलैया सी ज़िंदगी में ये चौसर को समझना बहुत कठिन है। इंसान का दिमाग फैक्ट्री है षड्यंत्र की कब कौनसा दाव खेलकर रिश्ते हमारी ऊँगलियों से गिरह खोलकर निकल ले पता ही नहीं चलता।
इस सफ़र में हम बेखौफ़ चलते जाते है देखने वाली बात ये है, न मंज़िल का पता होता है, न जहाँ पहुँचना है उस जगह के बारे में कुछ जानते है। ग्रंथों के भीतर शब्दों की मायाजाल से रचे विचारों का अनुसरण करते बस इतना जानते है कि मृत्यु हमारी आख़री मंज़िल है। पर मृत्यु की सच्चाई कोई नहीं पहचान पाया है।
हर एक तन को मिट्टी में मिल जाना है, हर कोई ज़िंदगी के सफ़र का प्रवासी है कब किसकी ट्रेन मृत्यु के रुप में आएगी कोई नहीं जानता, न दिन का पता न समय का। किसी एक लम्हें पर हर किसीका नाम लिखा होता है।
ये निश्चित है फिर भी इस सफ़र में इंसान एक दूसरे को समझते, हाथ थामकर चार कदम नहीं चल सकते। एक दूसरे के प्रति बैर, नफ़रत, इर्ष्या और धर्मांधता पाले सफ़र का मजा किरकिरा कर लेते है। जब कि सबका आख़री स्टेशन एक है। क्यूँ न ज़िंदगी के सफ़र में आने वाले हर पड़ाव पर ठहरकर ज़िंदगी की सुंदरता को महसूस करते सफ़र का आनंद लिया जाए।
गर जीना आए तो ज़िंदगी जश्न है उम्र का सफ़र हंसी खुशी तय करते कटे तो मजा है बाकी जन्म भले लिया फेरा फोगट है।
आख़िर में इसी गानें का अंतरा जीवन में उतार ले तो जीवन सफल है।
“ज़िंदगी को बहुत प्यार हमने किया मौत से भी मोहब्बत निभाएंगे हम, रोते रोते ज़माने में आए मगर हंसते हंसते ज़माने से जाएंगे हम” पर हंसते-हंसते तभी जाएंगे जब सफ़र का सही मजा लिया हो।
— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर