कविता

चंद्रमा

रवि किरणों की रोशनी
जब मंद पड़ गई
और अंधियारों ने
जब दस्तक लगाई
आसमां में मुस्कुराते चंद्रमा ने
इस धरा पर दूधिया चादर बिछाई

चंद्रमा का तेज देखो
नभ पे कैसा छा गया
आसमां पे जैसे कोई
एक फरिश्ता आ गया
है भले ही दाग मुख पर
चांदनी फिर भी हसीन
जैसे गोरी के हो मुख पे
कोई काला तिल महीन ।।

बच्चों के तुम चंदा मामा
गोपाल के हो चंद्र खिलौना
पूर्णिमा के चंद्रमा प्रभु
प्रकृति का तुम रूप सलोना
युगों-युगों से ताप मिटाते
शीतलता भर जाते तन मन
कहां से आते, कहां जाते हो
सुरभीत कर जाते हो जीवन ।।

जब से मानव के कदम हैं
चंद्रमा पर पड़ गए
भ्रांतियां कई दूर हो गई
नए किस्से गढ़ गए
जल्द ही आएगा वह दिन
कर सकेंगे हम भ्रमण
चांद पर टहलें गे जाकर
और करेंगे नवसृजन ।।

चंद्रमा पर महफिलें
द गोपाल कि हम सजाएंगे
शंखनाद और श्लोकों से
वातावरण गुंजाएंगे
गीत गाकर, कविता पढ़कर
हम वहां छा जाएंगे
आशीर्वचन पाकर बड़ों का
आनंद विभोर हो जाएंगे ।।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई