कविता

आशा निराशा

सिक्के के दो पहलुओं की तरह
आशा और निराशा भी है,
जब विश्वास बिखरने लगता है
तब निराशा छाने लगती है,
अपना अधिकार जमाने लगती है।
मगर वही विश्वास जब
आत्मविश्वास में बदलने लगता है,
तब निराशा बचने के
रास्ते ढूंढने लगती है।
आशा और निराशा के मध्य
छत्तीस का आँकड़ा है,
दोनों के मध्य सामंजस्य
भला कब हुआ है?
निराशा से याराना मत करिए
उसकी यारी की आड़ में
उसके चक्रव्यूह को समझिए,
यारी करनी ही है तो
आशाओं से करिए,
वो भले ही आपको दुत्कारे
मगर आप पीछा मत छोड़िए।
बस एक बार यारी हो भर जाये
भूलकर भी उससे यारी मत तोड़िए,
विश्वास कीजिये
निराशा पास नहीं आयेगी,
आशाओं की तपिश में
कुम्हला कर रह जायेगी।
आशा निराशा का खेल भी
बड़ा अजीब होता है,
एक अँधेरे में ढकेलती है
दूजा प्रकाश की ओर ले जाता है,
इसीलिए तो आशा निराशा का
कोई रिश्ता नहीं बन पाता है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921