कविता

बदलता परिवेश

समय के साथ साथ
परिवेश भी बदल रहा है,
आदमी आदमी नहीं
जैसे खुदा हो रहा है।
परिवार बिखर रहे हैं
रिश्ते सिमट रहे है,
अपने ही सबसे करीब के
दुश्मन बन रहे हैं।
बुजुर्गों का हाल बुरा हो रहा है
माँ बाप का भी महत्व घट रहा है।
आधुनिकता रोग बन रहा है
वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम बढ़ रहे हैं,
गाँव वीरान हो रहे हैं
बेतरतीब शहर बढ़ रहे हैं।
यातायात, संचार सुविधाएं
कहाँ से कहाँ पहुंच रही हैं
अपराधों, दुर्घटनाओं की बाढ़ हो गई।
जल,जंगल, जमीन घट रहे
प्रदूषण सीना तान खड़े हो रहे
बाढ़, सूखा, भूकंप, तो कहना क्या
बादल भी आये दिन फट रहे।
मौसम के रंग भी बेढ़ंगे हो गये
गिरगिट की तरह रंग अब दिखा रहे।
राजनीति का हाल न पूछो
संसार के रोज इतिहास भूगोल बदल रहे
मानवता का दम घुट रहा है
कट्टरपंथियों के भाव बढ़ रहे।
चिकित्सा जगत में काम हो रहे
बीमारियों के उत्पाद भी बढ़ रहे
शारीरिक श्रम से लोग बच रहे
असमय मौत के शिकार हो रहे।
परिवेश बदल रहा है
हम सब गुमान कर रहे,
पाने से ज्यादा खो रहे
इसका न ख्याल कर रहे।
परिवेश बदलता ही रहेगा
हम रोक तो सकते नहीं,
क्या अच्छा क्या बुरा है
ये क्यों समझ सकते नहीं।
— सुधीर श्रीवास्तव

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921