सामाजिक

अभी वो दहलीज़ दूर है

जैसे हाथी के दांत चबाने के और दिखाने के और होते है वैसे ही समाज में स्त्रियों के प्रति दोहरा अभिगम दिख रहा है, हम समझते है की आज की स्त्री आज़ाद और सुखी है, अपने दायरे से निकलकर आसमान छू रही है, पर..पर कितनी औरतें? महज़ 40% बाकी औरतों के लिए आज भी वही अठारहवीं सदी वाले हालात ही रहे है।
आज भी कुछ स्त्रियों के लिए कुछ भी नहीं बदला। हाई सोसायटी से लेकर पिछडी जाति तक स्त्रियां घरेलू हिंसा का शिकार होती रहती है। हमें सिर्फ़ हमारे आसपास के वातावरण का पता होता है, पर आज भी हर रोज़ कहीं न कहीं से स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों की खबरें छपती रहती है। आम इंसानों की हरकतें बाहर आती है और उपरी वर्ग की दब कर रह जाती है। हमारी आँखों के सामने आज भी बहुत सारी स्त्रियों का शोषण होते हम देखते है।
अभी अभी एक खबर सुनी की ऑस्ट्रेलियाई संसद में काम करने वाली तीन में से एक कर्मचारी यौन उत्पीड़न की शिकार होती है, यह सिर्फ़ हमारे देश की ही विडम्बना नहीं जिस देश और वर्ग को हम पढ़ा लिखा और आधुनिक समझते है वहाँ भी औरतें शोषण का शिकार होती है। इस साल की शुरुआत में संसद की एक पूर्व कर्मचारी ब्रिटनी हिगिंस ने कहा था कि एक मंत्री के कार्यालय में उनके सहयोगी ने उनका बलात्कार किया, जिसके बाद ये रिपोर्ट कमीशन की गई थी। हिंगिस की इस कहानी के सामने आने के बाद कई स्त्रियों ने अपने साथ हुए यौन शोषण और दुराचार की बातें साझा की। सेक्स डिस्क्रिमिनेशन कमिश्नर केट जेनकिंस ने कहा है कि पीड़ितों में काफ़ी बड़ी संख्या महिलाओं की है। सेट द स्टैंडर्ड शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में पाया गया कि 51% कर्मचारी किसी न किसी रूप में बुली, यौन उत्पीड़न और यौन हमले की कोशिश का शिकार रहे हैं।
No doubt परिस्थिति बदली भी है पर ये नहीं कह सकते की आज की हर नारी संपूर्ण आज़ाद और सुखी है। आज भी बहुत सारी बहनें पितृसत्तात्मक सोच की शिकार है और शराबी पतियों के हाथों प्रताड़ित होती रहती है। बहुत कम माँ बाप हिम्मत करते है ससुराल में दु:खी बेटी को वापस लाने की। और ज़्यादातर बेटियां भी बहुत सारी वजहों की वजह से या तो सहती रहती है या स्यूसाइड कर लेती है। अभी वो दिन दूर है जब हर स्त्री आज़ादी की सांस ले पाएगी।
“ज़हर से भी ज़हरिली ज़िंदगी की सच्चाई है, रुबरु होती है ज़िंदगी जिसकी कोख में वही ज़िंदगी के हसीन पलों की मोहताज होती है”
वो दर्द को हीरों की तरह पहनती है, ‘वो स्त्री है’ उसका जिस्म ज़िम्मेदारी, अवहेलना, तानें, उल्हाने, वहशीपन, दरिंदगी, मार और पितृसत्तात्मकता के ज़ेवर से सजा है। न..न..ना प्यार नहीं उसे वेदनाओं के अंबार से,
ये जो धरती के साथ तुलना करते हुए शक्ति के रुप में सदियों से स्थापित कर दी गई है उस सम्मान का खामियाजा भुगत रही है।
स्त्री ज़ात जो ठहरी, लादी गई रवायतों के विद्रोह में सर उठाना शोभा कहाँ देता है..
सहना है उसे, सहते जाना है
अभी दूर है वो दहलीज़ जिस पर बैठे पीठ पर लदे बोझ को उतार फैंकेगी।
वह सांसारिक सुखों को चखने की जुर्रत नहीं करती, उसे सीखाया गया है समर्पित होना,
आँसूओं का स्वाद भाता हो जिसे उसके आगे क्यूँ कोई परोसेगा मुस्कान की मीठाई।
तो क्या हुआ कि नामी परिवार से है, तो क्या हुआ कि शराबी और दरिंदे सरताज की जोरू है, तो क्या हुआ कि आम औरत है, है तो महज़ अबला हर किसीको हक है अबला के उपर अत्याचार का।
उपर उठने की जद्दोजहद की कोई गुंजाइश ही नहीं क्यूँकि पल-पल मरने के लिए ही लड़कियां जन्म लेती है…
सदियों से चली आ रही परंपरा के यज्ञ में समिध सी होमी जाती है अबलाएं, जन्म होते ही बेटी का आह निकल जाती है परिवार वालों की,
लो बेटी हुई….जो जन्म से ही अनमनी हो उसके जिस्म पर दर्द ही शोभा देता है।
सर न उठा सके इसी फ़िराक में सहनशीलता की देवी का बिरुद थमा दिया सदियों पहले समाज के ठेकेदारों ने, उस धरोहर को संभालती स्त्री की परवाज़ आज भले चाँद तक पहुँच चुकी हो, पर कहीं न कहीं शामिल होती है मर्दाना अहं की सियासतों में।
बीत जाएगी और कई सदियाँ यूँहीं दर्द से लिपटे, तभी तो सहने की आदी दर्द को हीरों की तरह पहनना सीख गई है।
सबको मुखर स्त्री अच्छी लगती है बशर्ते वह अपनी नहीं दूसरों की।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर