कविता

संकोच

संकोचवश

 

किताबें खरिद तो ली

उठाने का मन नहीं करता

किस संकोच में

आजकल पल-पल मरता

वक्त की सुई आवाज़

लगाये टिक-टिक

पन्नों की मासूमियत

कहती अब तो लिख

अब मोबाइल की स्क्रीन

जैसे करती छलावरण

बिल्कुल वैसे ही रहने

लगा है आधुनिक जन

शब्दों का गुबार

दबा हुआ है कहीं सीने में

लिखुंगा एक “सत्य”

कलम डुबोकर पसीने में

सृजन की आग में जब

संवेदनाओं को

कवि डुबायेगा

ये संकोच भी

नि:संकोच चला जायेगा

 

प्रवीण माटी

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733