कविता

विरह

उद्दगिन मन
सूनी निगाहें
शून्य में झांकती
घोर निराशा में
अपने को भूल
उम्मीद खोकर
नाउम्मीदी में जीती
न खुशी ,न दुःख
बस पीड़ा को पीती
बोझिल समययात्रा
क्रूर समयचक्र का
शिकार हो विरह वेदना को
स्वर की प्रतीक्षा मे
पल पल उधार की साँसों सा
जीवन के कँटीले पथ पर
बेबस होकर चलते जाना
न जीने का मोह
न मृत्यु का खौफ
फिर भी जीते जाना
मुर्दों सरीखा
बस दो दो हाथ करना
विरह के संग हर रोज।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921