कहानी

धूप क्यों मर गई?

जल बिन मछली मर जाती है, यह जानी-परखी बात है. उंगली के स्पर्श से छुईमुई कुछ देर के लिए मुई-सी अर्थात मरी-सी हो जाती है, यह भी देखा-सुना है. सूर्य के साथ-साथ सूरजमुखी का रुख बदलते जाना, सूर्य अस्त होते ही कमल के फूल का बंद हो जाना तथा चंद्रमा के साथ-साथ कुमुदिनी का विकसित होते जाना भी विश्वास योग्य बातें लगती हैं, किंतु सदैव “धूप कभी नहीं मरती और स्वाति कभी नहीं डरती” कहने वाली स्वाति के मुख से “धूप क्यों मर गई?” सुनकर सहसा विश्वास नहीं हुआ. परमपिता परमात्मा की असीम अनुकम्पा के साथ-साथ पुरुषार्थ पर भी अटल विश्वास रखने वाली स्वाति कभी भी, कहीं भी लेशमात्र भी कमज़ोर नहीं दिखाई पड़ी थी. उसके क्रियाकलापों, भावभंगिमाओं या मुख-मुद्राओं से कभी भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि वह डगमगा रही हो. कभी हंसी-हंसी में भी वह ऐसे बोल नहीं बोलती थी, जिससे उसका विश्वास भंग होता लगे. तब भी नहीं जब, उसके सिर से माता-पिता की मृत्यु का भयंकर तूफ़ान गुज़रा था.
स्वाति से मेरी प्रथम भेंट राह चलते हुई थी. तब न मैं उसे जानती थी और न वह मुझे. हम दोनों हमपेशा थीं, यह भी बाद में पता चला. एक निश्चित समय पर एक तरफ से स्वाति का आगमन होता था, दूसरी तरफ से मेरा. स्वाति के कंधे पर भारी-भरकम पर्स तो होता ही था, एक बड़ा-सा सफेद थैला भी झूलता था जिसमें, कभी कश्मीर के ढेर सारे सेव तो कभी केरल के केले, कभी इलाहाबाद के पेड़े (अमरूद) तो कभी नागपुर के संतरे झलक दिखाते थे. मैं अंदाज़ा ही लगाती रह जाती थी कि समय भी वही, चाल-ढाल भी वही, अंदाज़ भी वही, वह अध्यापिका ही होगी किंतु, रोज़ ढेर सारे फल या गाजर-मूली भरा झोला कहीं मन में संदेह उत्पन्न करता था.
फिर एक दिन झोले में फल-सब्ज़ी की जगह मोटी-मोटी कॉपियों ने ले ली.अब रोज़ ही छात्राओं की कॉपियों ने यह विश्वास पक्का कर दिया कि वह अध्यापिका ही थी.रोज़ सुबह रास्ते में वह मिलती तो मुझे लगता था कि मैं उसे देखना चाहती थी, पर मिलने के बाद स्कूल पहुंचने की जल्दी में न कभी उससे बात करती थी न फिर उसे याद ही रखती थी, बात आई-गई हो जाती. अगली सुबह फिर वही मिलने की आतुरता व दोनों का मुस्कुराकर निकल जाने का क्रम चलता रहता. बाद में उसने बताया कि उसका भी यही हाल था.
एक दिन कुछ सोचकर मैं घर से कुछ जल्दी निकली. निकलते ही वह मुझे मिल गई. मैंने उसकी अबाध गति में तनिक बाधा पहुंचाते हुए नमस्ते की मुद्रा में कहा “नमस्ते जी.”
वह अवाक हुई, रुकी और बोली, “नमस्ते जी, माफ़ करिए, मैने आपको पहचाना नहीं .”
“पहचानोगी कैसे? कभी हमारी भेंट ही नहीं हुई,” मैंने उसकी उत्सुकता को शांत करना चाहा, “हम प्रतिदिन विपरीत दिशाओं से आकर मिलते हैं और जल्दी में होने के कारण परिचित नहीं हो पाए. सो, मैंने सोचा कि आज परिचय हो ही जाए. सम्भवतः आप भी यही चाहती होंगी.”
“बिल्कुल सही फरमाया आपने”, स्वाति का मधु-सा मधुर उत्तर था, “मैं भी आपका परिचय पाने को उत्सुक थी. आप भी अध्यापिका हैं न! मुझे स्वाति कहते हैं और मैं हिंदी पढ़ाती हूं.”
“अरे वाह! अनिर्वचनीय सुख के कारण मेरे मुख से निकला, “हम केवल हमव्यवसायी ही नहीं हमविषय भी हैं.” अपना नाम बताते हुए मैं बोली.
“बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर. कभी घर पर आइए न!” और उसने झटपट अपना घर के पते का कार्ड निकालकर दे दिया. “अवश्य, अवश्य! आप भी आइए.” कहते हुए मैंने भी उसे अपना विज़िटिंग कार्ड दे दिया.
“अच्छा, फिर मिलेंगे,” कहकर वह चलने को उद्यत हुई किंतु, जाते-जाते मेरी जिज्ञासा उसने शांत कर दी थी. मैंने पूछा था, “आज तो आपके पास कॉपियां हैं, कुछ दिन पहले तो फल वगैरह होते थे ना!”
“अरे भई, वह तो पिछले महीने मैं फ्रूट-क्लब की इंचार्ज थी. मेरे घर के पास फल सस्ता व अच्छा मिलता है, इसलिए मैं शाम को ही लेकर रख देती थी, वही ले जाती थी.”
“शाबाश!” आयु में अपने से बहुत बड़ी स्वाति के प्रति मेरे स्वतः प्रस्फुटित उद्गार थे, “आप इतनी दूर से लेकर जाती हैं. धन्य हैं आप.”
दोनों तरफ समय की सीमा होने के कारण प्रथम परिचय को वहीं विराम देना पड़ा. फिर तो मुलाकातें होती रहीं. कभी रास्ते में, कभी घर में, तो कभी टेलीफोन पर हम बतियाते रहे. कई महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा. फिर अचानक उसका राह में मिलना बंद हो गया था. किसी-न-किसी कारण कभी-कभी व्यवधान पड़ता रहता था, अतः मैंने भी विशेष ध्यान नहीं दिया.
एक दिन बड़ी प्यारी-सी सुरमई-सलेटी गोल्फ कार मेरे पास आकर रुकी. मेरी गति में बाधा पड़ी. सोचने का समय न देकर स्वाति ने दरवाज़ा खोला और फिर बड़े नाटकीय अंदाज़ में बोली, “आइए मैडम, बैठिए, आपको स्कूल पहुंचाए देते हैं.”
मैं अवाक-सी उसमें बैठ गई. कार के सीट कवर भी कार के रंग से मेल खाते सुरमई-सलेटी रंग के थे. फर के नरम व गुदगुदे कवर, हाथ लगाओ तो मज़ा आ जाए. स्वाति को सलेटी रंग बहुत प्रिय था. भिन्न-भिन्न शेड्स में न जाने कितनी ही सलेटी रंग की साड़ियां उसके वॉर्डरोब में थीं. उस दिन भी उसने सलेटी रंग की साड़ी ही पहनी थी. कोट भी उसने सलेटी फर वाला पहना था. रास्ते में उसने बताया कि पिछले सप्ताह ही उसने कार खरीदी है. मुझे सरप्राईज़ देने के लिए ही उसने कार चलाना सीखने व खरीदने की कोई बात नहीं की थी. मुझे स्कूल के पास उतारकर वह चली गई.
कार के कारण रास्ते में मिलना-जुलना तो प्रायः समाप्त ही हो गया था. जिस स्थल पर हम प्रायः मिलते थे, वहां आकर उसकी उसकी याद अवश्य आ जाती थी. उसने बताया था कि उसका नाम स्वाति इसलिए रखा गया क्योंकि स्वाति नक्षत्र की भांति बहुत प्रतीक्षा के पश्चात घर में किसी बाल-बाला का अवतरण हुआ था. पंडितजी के नाम से विख्यात पिता ने मुझे स्वाति के संबोधन से पुकारना श्रेयस्कर समझा.
उसने यह भी बताया था कि उसे गुड़िया बनाने व सजाने का बहुत शौक है और वह गुड़िया बनाने की विशेषज्ञ मानी जाती है. अपने इस हुनर का परिचय वह यदा-कदा गुड़िया का डिब्बा हाथ में पकड़े हुए दे ही देती थी.
इसी तरह की अनेक बातें उसकी याद दिलातीं और फिर मैं अपने काम में लग जाती थी.
एक दिन अनहोनी हो गई. स्वाति का फोन आया. वह घबराई हुई थी. स्वाति और घबराहट! कोई मेल ही नहीं. इतने बड़े संसार में वह अकेली, निपट अकेली ही रहती थी. उसने विवाह भी नहीं किया था. कभी-कभी उसे छात्राओं को पढ़ाना पड़ता था कि, “स्त्री को पहले बाल्यावस्था में पिता के आधीन, विवाह के पश्चात युवावस्था में पति के आधीन तथा वृद्धावस्था में पुत्रों के आधीन रहना चाहिए,” पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने के कारण उसे पढ़ाना तो अवश्य पड़ता था पर, वह इससे सहमत कदापि नहीं थी. स्वाति का जन्म ही स्वाधीन रहने के लिए हुआ था. सौभाग्यवश उसके पिताजी की भी यही मान्यता थी, अतः उसे ऐसे ही संस्कार व सुविधाएं भी मिलीं. पति व पुत्र की आधीनता की उसने संभावनाएं ही नहीं उत्पन्न होने दीं.
जब तक माता-पिता थे,विवाह के लिए कहते रहे. अपनी अकेली संतान स्वाति के लिए माता-पिता ने कितने ही स्वप्न संजोए थे. स्वाधीनता की समाप्ति की आशका से स्वाति ने उन स्वप्नों को साकार करना नहीं स्वीकारा. आशा फलीभूत न होती देखकर पुत्री को सुखी व संतुष्ट रहने देने के लिए उन्होंने विवाह का ज़िक्र छेड़ना लगभग छोड़-सा ही दिया था. फिर भी कभी-कभी दबी ज़बान से बात हो ही जाती थी. उनके देहावसान के बाद इतनी बड़ी कोठी में वह अकेली ही रहती थी. उसने कोई नौकर-नौकरानी भी नहीं रखी थी ताकि, उसकी स्वतंत्रता में बाधा न पड़े. अपनी दूसरी कोठी का किराया लेने भी वह स्वयं अकेली ही जाती थी. कभी किसी के साथ की आकांक्षा उसने न डर के कारण की, न मन से. बड़ी-से-बड़ी समस्या को उसने पलक झपकते धैर्यपूर्वक निपटा लिया था अब क्या हो गया? आज मुझे किसलिए याद किया गया है? सोचते-सोचते मैं चल दी.
वहां जाकर पता लगा कि कि वास्तव में अनहोनी हो ही गई थी. पिछले सप्ताह स्वाति की तबियत काफी खराब हो गई थी. उसे लगा कि वह अपनी चचेरी बहनों को अपना हिसाब-किताब भी समझा दे या गहनों के संदूक की चाबी सौंप दे तो कुछ निश्चिंत हो जाएगी. उसने उन्हें बुलाकर अपना हिसाब-किताब भी समझा दिया तथा ज़ेवर वाले संदूक की चाबी भी सौंप दी. ज़ेवर भी क्या उसके पास कम थे? मां के खानदानी ज़ेवर तो थे ही, स्वाति के लिए विशेष तौर पर मंगवाए व बनवाए गए तरह-तरह के गहनों की भी भरमार थी. निश्चिंत रहने का आश्वासन देकर बहिनों ने एक ही सप्ताह में उसके विश्वास पर भारी कुठाराघात किया. आज उसने ज़ेवर का संदूक खोला तो, सारे ज़ेवर नदारद थे. स्वाति भौंचक्की रह गई. किसी से क्या गिला-शिकवा करती? एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखने वाली स्वाति ने स्वयं ही चाबी सौंपकर अपने हाथ काट लिए थे. मन मसोसकर रह गई. आगे-पीछे तो इन्हीं बहनों को देना था, अब क्या कहे? मैंने उसे कहा भी था कि कम-से-कम उन्हें बता तो दिया जाए पर, उसने यह कहकर टाल दिया कि कहीं उन्हें बुरा न लगे. उसके अहं को पहली बार ठेस लगी थी. इतनी बड़ी चोट को मैं सहला भर पाई थी.
अभी उससे भी बड़ी चोट उसके लिए प्रतीक्षारत थी. वे ही बहनें एक दिन आकर उसे बहला-फुसलाकर दूसरी कोठी को बेचकर निश्चिंत होने के लिए राज़ी कर गईं थीं. न जाने उन्हें क्या जल्दी थी? उन्होंने प्रॉपर्टी डीलर से मिलकर डेढ़ लाख रुपए भी डकार लिए. स्वाति को भनक तक न लगने दी. जो तीन लाख स्वाति को मिले, उनमें से भी काफी कुछ तो इंकम टैक्स में निकल जाना था, बाकी राशि को भी वे किसी तरह हथियाना चाहती थीं.
एक सुहानी शाम को स्वाति के सीने में दर्द उठा. उसने बहनों को बुलाया. बहिनों को स्वाति के दर्द से ज़्यादा पैसों की पड़ी थी. वे बोलीं, ”दीदी, रुपये कहां रखे हैं?”
स्वाति सन्न रह गई. यही वे बहनें हैं, जिनके लिए स्वाति अपने मन से न जाने क्या-क्या करती रही! अपना सब कुछ उसने अपने जीते-जी इन्हीं के नाम कर दिया था. ये हैं कि रुपयों के सामने उसे कुछ समझती ही नहीं. ख़ैर, डॉक्टर बुलाया गया. उसकी तबीयत संभल गई पर, मन मुरझा-सा गया था.
अगले दिन फिर स्वाति का फोन आया. वह बोली, “धूप क्यों मर गई?” अब तक मैंने ध्यान नहीं दिया था कि धूप नहीं निकली थी या कि कम है. उसका यह वाक्य सुनकर मैंने धूप की मृत्यु को महसूस किया, किंतु उससे भी अधिक डर मुझे स्वाति का लगा. सदैव सकारात्मक पहलू को देखने वाली वह हमेशा कहती थी, कि धूप कभी नहीं मरती, वह बेधड़क होकर जहां चाहे आती-जाती रहती है. शीघ्रतापूर्वक मैं उसके घर पहुंची, तो देखा वहां मौत का साया पड़ चुका था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244